प्रश्न‒साधन, भजन, सत्संग
करते हैं फिर भी
संसारके प्रवाहका
असर क्यों पड़ जाता
है ?
उत्तर‒देखो भैया
! मैं एक बात कहता
हूँ उसकी तरफ ध्यान
दें । संसारका
प्रभाव किसपर
पड़ता है ? गहरा विचार करना
। संसारका
प्रभाव संसारपर
ही पड़ता है । स्वरूपपर
संसारका प्रभाव
नहीं पड़ता । पहले
प्रभाव पड़ा और
अभी प्रभाव नहीं
रहा । यह ज्ञान
है कि नहीं ? इसका उत्तर दो
।
प्रश्न‒एक बात मनमें आती
है कि ये सत्संगमें
तो जँच जाता है
पीछे नहीं रहता
।
उत्तर‒पीछे मत रहो
। सत्संगमें जँच
गयी है न । तो पीछे
रहना तुम देखना
चाहते हो, यही बहुत बड़ी गलती
है । उसका सुधार
कर लो अभी । सुधार
यह है कि यह व्यवहारमें
नहीं रहता अर्थात्
अन्तःकरणमें
नहीं रहता और अन्तःकरणमें
वृत्तियाँ तो
व्यवहारके अनुसार
होंगी । अगर वैसे
वृत्तियाँ न हो
तो व्यवहार कैसे
होगा ? भोजन ही कैसे होगा ? बोलना भी कैसे
होगा ? चलना
भी कैसे होगा ? कुछ भी बोलना न
हो तो कैसे होगा ? जैसा व्यवहार
होगा वैसी वृत्तियाँ
होंगी, पर व्यवहार और
एकान्त दोनोंका
ज्ञान किसीको
होता है कि नहीं
होता है ? दोनोंका ज्ञान
जिसको होता है
उसके ज्ञानमें
व्यवहार और एकान्त
है । इस बातको समझ लो
तो अभी निहाल हो
जाओ ।
मानो व्यवहार
और व्यवहाररहित
अक्रिय अवस्था
। अक्रिय और सक्रिय‒ये
दोनों अवस्थाएँ
हैं । दोनों ही
प्रवृत्ति हैं
। अक्रिय
भी प्रवृत्ति
है और सक्रिय भी
प्रवृत्ति है
। ये तो तुमने
सुना ही होगा कि
सक्रिय प्रवृत्ति
और अक्रिय प्रवृत्ति
नहीं है, परन्तु अक्रिय
भी प्रवृत्ति
है और सक्रिय भी
प्रवृत्ति है
। अक्रिय और
सक्रिय जिस प्रकाशमें
प्रकाशित होते
हैं उस प्रकाशमें
प्रवृत्ति नहीं
है । वह प्रकाश
एकान्तमें बैठे
हुए साफ दीखता
है, व्यवहार करते
हुए नहीं दीखता
है । तो न दीखनेपर
भी व्यवहारमें
प्रवृत्तिका
ज्ञान किसको हो
रहा है ? प्रवृत्ति भी
तो जाननेमें आती
है । आती है न ? तो जाननापन तो
रहता है कि नहीं ? केवल जानना
है उसमें प्रवृत्ति-निवृत्ति
दोनों नहीं हैं
। बड़ी
सीधी बात है, बहुत ही सरल बात
है कि प्रवृत्ति
और निवृत्ति दोनों
जिससे प्रकाशित
होते हैं, उसमें प्रवृत्ति-निवृत्ति
कुछ नहीं है । न
प्रवृत्ति है,
न निवृत्ति है
। समझमें आ गया
न ? तो इसमें तुम
डटे रहो । वृत्तियोंका
एक रूप देखना छोड़
दो आजसे । वृत्तियाँ
एक रूप बनी रहें
। ये आज तुम छोड़
दो मेरे कहनेसे
। ये जबतक पकड़े
रहोगे, तबतक तुम्हें
सन्तोष नहीं होगा
और ये आज ही छोड़
दो । अभी-अभी । व्यवहारमें
कैसे ही रहो । क्योंकि
वास्तवमें नित्य
रहनेवाली चीज
तो प्रवृत्ति
और निवृत्ति दोनोंका
प्रकाशक है । तो
निवृत्तिको क्यों
इतना महत्त्व
देते हो । वास्तविक
तो प्रकाश है ।
प्रवृत्ति और
निवृत्ति दोनों
जिस प्रकाशसे
प्रकाशित होते
हैं, वह प्रकाश
वास्तविक है । प्रवृत्ति
और निवृत्ति दोनों
अवास्तविक हैं
। प्रवृत्ति और
निवृत्ति दोनों
सापेक्ष हैं ।
प्रवृत्तिकी
दृष्टिसे निवृत्ति
है और निवृत्तिकी
दृष्टिसे प्रवृत्ति
है । वास्तवमें
जो प्रकाश है उसमें
न निवृत्ति है
न प्रवृत्ति है
। ठीक है न यह ? तो इसमें तुम्हारी
स्थिति है । मेरे कहनेसे
मान लो और यह जो
वहम है कि प्रवृत्ति
जबतक रहती है और
बीचमें जो असर
पड़ता है, तबतक हम तो
ठीक नहीं हुए, यह वहम छोड़
दो ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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