(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
यह
नित्ययोग सबको
निरन्तर स्वत:
प्राप्त है, पर
जिज्ञासाके बिना
साधक इसको पकड़ता
नहीं । कारण कि
जिज्ञासामें
ही इसको पकड़नेकी
शक्ति है । जैसे, भोजन बढ़िया हो,
पर भूखके बिना
उसको पा नहीं सकते
और पा लें तो उसका
रस नहीं बनता,
जिससे वह शक्ति
नहीं देता । जबतक
जिज्ञासा जाग्रत्
नहीं होती, तभीतक तत्त्वप्राप्तिमें
देरी है । जिज्ञासा
जाग्रत् होनेपर
कुछ देरी नहीं
है । किसी भी
तरहका दूसरा कोई
आग्रह न हो तो जिज्ञासा
जाग्रत् होनेपर
तत्काल नित्ययोगकी
प्राप्ति हो जायगी
। अगर साधक अपने
सम्प्रदायका,
मतका, द्वैतका,
अद्वैतका,
भक्तिका, ज्ञानका, योगका कोई आग्रह
रखेगा तो उसको
जल्दी तत्त्वप्राप्ति
नहीं होगी । सन्तोंने
कहा है‒
मतवादी
जानै नहीं, ततवादी
की बात ।
सूरज
ऊगा उल्लुवा, गिनै अँधेरी रात ॥
हरिया
तत्त विचारियै, क्या मत सेती
काम ।
तत्त
बसाया अमरपुर, मतका जमपुर धाम
॥
प्रश्न‒नित्ययोगका
अनुभव करनेका
सुगम उपाय क्या
है ?
उत्तर‒संसारमें
हम अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख, भाव-अभाव, आदर-निरादर,
निन्दा-स्तुति
आदि जितने भी द्वन्द्व
देखते हैं, उन सबका संयोग
और वियोग होता
है । इस संयोग और
वियोग-दोनोंपर
विचार करें तो
संयोग अनित्य
है और वियोग नित्य
है । अगर संसारके
नित्य वियोगको
स्वीकार कर लें
तो परमात्माके
साथ नित्ययोगका
अनुभव हो जायगा
।
संसारकी
किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिसे
हमारा संयोग (मिलन)
हुआ है तो अन्तमें
उसका वियोग अवश्य
होगा‒
सर्वे
क्षयान्ता निचयाः
पतनान्ताः समुच्छ्रया:
।
संयोगा
विप्रयोगान्ता
मरणान्तं च जीवितम्
॥
(वाल्मीकि॰२।१०५।१६; महा॰आश्व॰ ४४।११)
‘समस्त
संग्रहोंका अन्त
विनाश है, लौकिक
उन्नतियोंका
अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त
वियोग है और जीवनका
अन्त मरण है ।’
संसारका
वियोग नित्य है‒इसका
अनुभव मनुष्य-मात्रको
है । यह कोई नयी
बात नहीं है । पहले
भी वियोग था, बादमें भी वियोग
रहेगा और संयोगके
समय भी निरन्तर
वियोग हो रहा है;
अत: वियोग नित्य
है । नित्यको
स्वीकार कर लें
तो अनित्यका त्याग
हो जायगा । अनित्यका त्याग
करना ही साधकका
मुख्य कार्य है
। वास्तवमें
वियोगका ही महत्त्व
है, संयोगका
नहीं । साधकसे
गलती यह होती है
कि वह संयोगको
सच्चा मानकर उसको
महत्व देता है, पर वियोगको
महत्त्व नहीं
देता । वह वियोगमें
संयोगकी लालसा
रखता है; जैसे‒धन
नहीं हो तो धनकी
लालसा रखता है
। अगर वह संयोगके
साथ सम्बन्ध न
रखकर वियोगके
साथ सम्बन्ध रखे, वियोगको
ही महत्व दे तो
निहाल हो जाय !
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘जित देखूँ
तित तू’
पुस्तकसे
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