(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जो
नित्य (वियोग) को
महत्त्व दे, वह साधक है और
जो अनित्य (संयोग)
को महत्व दे, वह संसारी है
। जो नित्यका आदर
करता है, वह
ज्ञानी है और जो
अनित्यका आदर
करता है, वह
अज्ञानी है । नित्य
तत्त्वको न पकड़कर
अनित्य तत्त्वको
पकड़ना ही जन्म-मरणका
कारण है । गीतामें
आया है‒
कारणं
गुणसंगोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु
॥
(१३।२१)
‘गुणोंका संग
ही ऊँच-नीच योनियोंमें
जन्म होनेका कारण
है ।’
गुणोंका
संग अनित्य है
और गुणोंसे असंगता
नित्य है । असंगता अपना
स्वरूप है‒‘असंगो ह्ययं
पुरुष:’ (बृहदा॰४।३।१५) । अगर
नित्य (गुणोंसे
असंगता) को पकड़ें
तो जन्म-मरण हो
ही नहीं सकता ।
संयोग
अनित्य है और वियोग
नित्य है‒यह सम्पूर्ण
वेदों और शास्त्रोंकी
सार बात है । संसारके
वियोगका अनुभव
कर लेना ही नित्ययोग
है‒‘तं विद्याद्
दु:खसयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्’
(गीता ६।२३) । मिलना
नित्य नहीं रहेगा, पर बिछुड़ना नित्य
रहेगा । हम
मिलनकी इच्छा
रखते हैं, मिलनको
महत्व देते हैं‒यह
मूर्खता है । यह
मूर्खता सत्संगसे
मिटती है ।
संसारका
वियोग नित्य है‒यह
किसी एक व्यक्ति, मत, सम्प्रदाय,
धर्म आदिकी
बात नहीं है, प्रत्युत सबकी
बात है । इसमें
कोई मतभेद नहीं
है । जिससे
नित्य वियोग है,
उसके संयोगको
स्वीकार कर लिया,
उसको सत्ता और
महत्ता दे दी, इसीलिये नित्ययोगका
अनुभव नहीं हो
रहा है । जो
‘नहीं’
है, उसको ‘है’ मान लिया,
इसीलिये ‘है’ होते हुए भी
दीखना बन्द हो
गया । ‘है’
तो सदा ‘है’
ही रहता है, कभी ‘नहीं’
में बदलता नहीं
। सदा साथ
रहनेवालेको देखनेका
यही उपाय है कि
सदा बिछुड़नेवालेको
साथ न मानें । जिसका
वियोग अवश्य होगा,
उसके वियोगको
वर्तमानमें ही
स्वीकार कर लें
। तात्पर्य
है कि जिसका वियोग
हो जायगा, उसमें राग
न करें, उसको
महत्त्व न दें,
उसके प्रभावको
स्वीकार न करें
। जब सब संयोगोंका
वियोग हो जायगा
अर्थात् संयोगोंमें
राग नहीं रहेगा,
तब नित्ययोगका
अनुभव हो जायगा
।
कुछ
लोग ऐसी शंका करते
हैं कि नित्ययोगका
अनुभव होनेपर
अर्थात् ज्ञान
होनेपर व्यवहार
कैसे होगा ? वास्तवमें
ज्ञान अज्ञानका
निवर्तक होता
है, व्यवहारका
निवर्तक नहीं
होता । अत:
ज्ञान होनेपर
व्यवहारमें कोई
बाधा नहीं आयेगी,
प्रत्युत कामना, ममता, स्वार्थ आदि
दोषोंके मिट जानेसे
बड़ा अच्छा और सुन्दर
व्यवहार होगा
। उस व्यवहारसे
स्वत:-स्वाभाविक
सबका हित होगा
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘जित देखूँ
तित तू’
पुस्तकसे
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