(गत ब्लॉगसे
आगेका)
कर्तृत्व-भोक्तृत्व
ही संसार है । परमात्मतत्त्व
कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे
अतीत है । सम्पूर्ण
व्यवहार संसारमें
होता है । जिसमें
व्यवहार होता
है, वह नाशवान्
होता है और जिसमें
कोई व्यवहार नहीं
होता, वह अविनाशी
होता है । संसार
निरन्तर परिवर्तनशील
है । एक नदीके
किनारे कई सज्जन
खड़े थे । वे कहने
लगे कि देखो, नदी कैसे वेगसे
बह रही है ! तो एक
सन्तने कहा कि
नदी भी बह रही है,
उसका जल भी बह
रहा है और उसपर
जो पुल बना है, उसपर आदमी भी
बह रहे हैं ! इतना
ही नहीं, यह
पुल भी बह रहा है
! इसपर प्रश्र उठता
है कि पुल कैसे
बह रहा है ? वह
तो अपनी जगहपर
ही है । इसका उत्तर
है कि जब पुल बना
था, उस समय यह
जैसा नया था, वैसा नया आज नहीं
रहा, प्रत्युत
पुराना हो गया
। इसका नयापना
बह गया और पुरानापना
आ गया । यह पुरानापना
भी निरन्तर बह
रहा है और बहते-बहते
एक दिन यह पुल मिट
जायगा । ऐसे ही
यह नदी भी निरन्तर
बह रही है और बहते-बहते
एक दिन मिट जायगी
। तात्पर्य
है कि संसारकी
प्रत्येक वस्तु
बह रही है और बहते
हुए नाशकी तरफ
अर्थात् अभावकी
तरफ जा रही है ।
एक दिन संसारका
बहनापना भी नहीं
रहेगा, उसका सर्वथा
अभाव हो जायगा
। मनुष्य समझते
हैं कि हम जी रहे
हैं, पर यह बिलकुल
झूठी बात है । सच्ची
बात तो यह है कि
हम निरन्तर मर
रहे हैं, एक-एक
श्वासमें मर रहे
हैं, एक-एक क्षणमें
मर रहे हैं । किसी
भी क्षण मरना बन्द
नहीं होता । तात्पर्य है
कि यह मृत्युरूपी
क्रिया नाशवान्
शरीरमें हो रही
है, स्वरूपमें
नहीं । अविनाशी
तत्त्वमें कोई
क्रिया होती ही
नहीं । अत: उसको
क्रियाके द्वारा
नहीं पकड़ सकते
।
विवाह
होनेपर कन्या
पतिकी हो जाती
है । वह मान लेती
है कि ये मेरे पति
हैं और पति मान
लेता है कि यह मेरी
पत्नी है‒इसमें
क्या क्रिया है ? यह तो स्वीकृति
है । स्वीकृतिमें
क्रिया नहीं होती
। परन्तु ‘मैं
पतिकी हूँ’‒इस स्वीकृतिमें
और ‘मैं भगवान्का
हूँ’‒इस स्वीकृतिमें
फर्क है । ‘मैं पतिकी
हूँ’‒यह स्वीकृति
तो शरीरको लेकर
है, पर ‘मैं
भगवान्का हूँ’‒यह
स्वीकृति शरीरको
लेकर नहीं है,
प्रत्युत स्वरूप
(तत्त्व)को लेकर
है । स्त्री तो
पतिकी बनती है,
पहलेसे नहीं
है, पर ‘मैं
भगवान्का हूँ’‒यह
पहलेसे ही स्वतःसिद्ध
है‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५।७), ‘ईस्वर अंस
जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७।१) । जब
पतिकी स्वीकृतिमें
भी क्रिया नहीं
है, फिर भगवान्की
स्वीकृतिमें
क्रिया कैसे होगी
जो कि स्वतःसिद्ध
है ? अत: ‘मैं
भगवान्का हूँ
और भगवान् मेरे
हैं’‒यह स्वीकृति
‘करणनिरपेक्ष
साधन’ है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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