संसारमें
किसी क्रियाकी
सिद्धिके लिये
जो खास कारण हैं, उनको ‘कारक’ कहते हैं । जैसे,
कोई व्यक्ति
बोलता है तो बोलनेके
लिये जो साधन होते
हैं, वे ‘कारक’ कहलाते
हैं । इसलिये व्याकरणमें
कारकका लक्षण
बताया है‒‘क्रियाजनकत्व
कारकत्वम्’ अर्थात्
जो क्रियाका जनक
है, उसको कारक कहते
हैं । उदाहरणके
लिये ‘रामेण बाणेन
हतो बाली’ ‘रामके
बाणसे बाली मारा
गया’‒इस वाक्यमें
‘बाण’ करण है;
क्योंकि बालीकी
मृत्यु बाणसे
हुई, धनुष,
चाप, हाथ
आदि भी करण हैं;
क्योंकि इनके
बिना बाण चल ही
नहीं सकता । परन्तु
बालीके मरनेकी
क्रिया बाणसे
हुई है धनुषसे,
डोरीसे अथवा
हाथसे नहीं हुई
है । इसलिये ‘करण’ संज्ञा बाणकी
हुई, धनुष आदिकी
नहीं । जिस
व्यापारके बाद
तत्काल क्रियाकी
सिद्धि हो ही जाती
है, उसका
नाम ‘करण’ होता
है*। संसारके
सभी कार्य करणसे
ही सिद्ध होते
हैं । इसलिये संसारमें
कोई भी काम किया
जाय तो उसमें करणकी
अपेक्षा रहती
है, करणकी
सहायता लेनी पड़ती
है । करणके बिना
कर्ता कोई काम
कर ही नहीं सकता
। इसलिये व्याकरणमें
आया है‒‘साधकतम
करणम्’ (पाणि॰ अ॰ १।४।४२) ‘जो क्रियाकी
सिद्धिमें खास,
अचूक कारण हो,
उसका नाम ‘करण’
है ।’ तात्पर्य
है कि करणके बिना
किसी क्रियाकी
सिद्धि होती ही
नहीं ।
परमात्मतत्त्व
करणरहित है और
उसकी प्राप्तिके
साधन दो प्रकारके
हैं‒करणसापेक्ष
और करणनिरपेक्ष
। जप, ध्यान,
कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय,
समाधि आदि सब
करणसापेक्ष साधन
हैं । जितनी भी
क्रियाएँ हैं,
सब करणके द्वारा
ही होती हैं । परन्तु
परमात्मा किसी
क्रियाके विषय
नहीं हैं । क्रियाका विषय
वह वस्तु होती
है जो पैदा होती
है । जो वस्तुएँ
पहले नहीं हैं
और पीछे उत्पन्न
होती हैं, लायी जाती
हैं, बनायी
जाती हैं अथवा
उनमें परिवर्तन
किया जाता है,
उन वस्तुओंकी
प्राप्ति करणसे
होती है । परन्तु
जो उत्पन्न नहीं
होता, लाया
नहीं जाता, बनाया नहीं जाता,
बदला नहीं जाता
प्रत्युत सदासे
ज्यों-का-त्यों
स्वतःसिद्ध है, उसकी प्राप्तिके
लिये करणका तो
कहना ही क्या,
कर्ताकी भी
जरूरत नहीं होती
। कारक क्रियाकी
सिद्धिमें काम
आता है और क्रिया
तथा पदार्थ प्रकृतिके
द्वारा होते हैं
। परमात्मतत्त्व
प्रकृतिसे अतीत
है । अत: उसमें कोई
कारक नहीं है अर्थात्
न कर्ता है, न कर्म है, न करण है, न
सम्प्रदान है,
अपादान है और
न अधिकरण है ।
अगर
किसीसे पूछा जाय
कि तू है क्या ? तो हरेक कहेगा
कि ‘हाँ’ मैं
‘हूँ’ । ‘मैं हूँ’‒इसमें
कोई विवाद नहीं
है, यह निर्विवाद
बात है । अब विचार
करें कि ‘मैं हूँ’‒इस
प्रकार अपनी सत्ता
किस करणके द्वारा
सिद्ध होती है ? ‘मैं हूँ’‒इस
अपने होनेपनमें
न कर्ता है, न कर्म है, न करण है, न
सम्प्रदान है,
न अपादान है
और न अधिकरण है
। अपने होनेपनको
प्रमाणित करनेके
लिये किसी पुस्तककी, शास्त्रकी
भी जरूरत नहीं
है । तात्पर्य
है कि करणसे हम
क्रिया कर सकते
हैं, श्रवण
कर सकते हैं, मनन कर सकते हैं,
निदिध्यासन
कर सकते हैं, ध्यान कर सकते
हैं, समाधि
लगा सकते हैं, पर जो इन सबसे
अतीत तथा भूत,
भविष्यत् और
वर्तमान‒तीनों
कालोंसे रहित
है, उस परमात्मतत्त्वतक
कोई क्रिया पहुँचती
ही नहीं, फिर
उसमें करण क्या
करेगा ? अत:
‘मैं-हूँ’‒इस प्रकार
अपनी स्वतःसिद्ध
सत्ताका अनुभव
करना ‘करणनिरपेक्ष
साधन’ है
। इस साधनमें
करण रहे या न रहे,
पर इसमें करणकी
मुख्यता नहीं
है, अपेक्षा
नहीं है, इसलिये
इसको ‘करणनिरपेक्ष’
कहते हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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*क्रियाया
फलनिष्पत्तिर्यद्व्यापारादनन्तरम्
।
विवक्ष्यते
यदा तत्र करणं तत्तदा स्मृतम्
॥
(वाक्यपदीय ३।७।९०)
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