(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ज्ञातव्य
भगवान् सब
जगह परिपूर्ण
हैं‒ऐसा प्राय:
सभी आस्तिक मानते
हैं; परंतु वास्तवमें
ऐसा मानना उन्हींका
है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदिमें
भगवान्को मानकर
उनका पूजन शुरू
कर दिया है । कारण कि
जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदिमें
भगवान्को मानते
हैं, वे स्वत: सब
जगह सब प्राणियोंमें
भगवान्को मानने
लग जायँगे । जो केवल मूर्ति
आदिमें ही भगवान्को
मानते हैं, उनको ‘प्राकृत
(आरम्भिक) भक्त’
कहा गया है* । क्योंकि उन्होंने
एक जगह भगवान्का
पूजन शुरू कर दिया; अत: वे भगवान्के
सम्मुख हो गये
। परन्तु जो
केवल ‘भगवान् सब
जगह हैं’‒ऐसा कहते
हैं, पर उनका कहीं
भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठभाव
नहीं है, उनको भक्त
नहीं कहा गया है; क्योंकि
वे ‘भगवान् सब जगह
हैं’‒ऐसा केवल कहते
हैं, मानते नहीं; अत: वे भगवान्के
सम्मुख नहीं हुए
।
मूर्तिमें
भगवान्का पूजन
श्रद्धाका विषय
है, तर्कका
विषय नहीं । जिनमें श्रद्धा
है, उनके सामने
भगवान्का महत्त्व
प्रकट हो जाता
है । उनके द्वारा
की गयी पूजाको
भगवान् ग्रहण
करते हैं । उनके
हाथसे भगवान्
प्रसाद ग्रहण
करते हैं । जैसे, करमाबाईसे भगवान्ने
खिचड़ी खायी, धन्ना भक्तसे
भगवान्ने टिक्कड़
खाये, मीराबाईसे
भगवान्ने दूध
पिया आदि-आदि ।
तात्पर्य है कि
श्रद्धा-भक्तिसे
भगवान् मूर्तिमें
प्रकट हो जाते
हैं ।
प्रश्न‒भक्तलोग भगवान्को
भोग लगाते हैं
तो भगवान् उसको
ग्रहण करते हैं‒इसका
क्या पता ?
उत्तर‒भगवान्के
दरबारमें वस्तुकी
प्रधानता नहीं
है, प्रत्युत भावकी
प्रधानता है । भावके कारण
ही भगवान् भक्तके
द्वारा अर्पित
वस्तुओं और क्रियाओंको
ग्रहण कर लेते
हैं । भक्तका भाव
भगवान्को भोजन
करानेका होता
है तो भगवान्को
भूख लग जाती है
और वे प्रकट होकर
भोजन कर लेते हैं
। भक्तके भावके
कारण भगवान् जिस
वस्तुको ग्रहण
करते हैं वह वस्तु
नाशवान् नहीं
रहती, प्रत्युत
दिव्य, चिन्मय हो
जाती है । अगर वैसा भाव
न हो, भावमें
कमी हो तो भी भगवान्
भक्तके द्वारा
भोजन अर्पण करनेमात्रसे
सन्तुष्ट हो जाते
हैं । भगवान्के
सन्तुष्ट होनेमें
वस्तु और क्रियाकी
प्रधानता नहीं
है, प्रत्युत
भावकी ही प्रधानता
है । सन्तोंने
कहा है‒
भाव भगत की
राबड़ी, मीठी लागे
‘वीर’ ।
बिना भाव ‘कालू’
कहे कड़वी लागे
खीर ॥
हमें एक सज्जन
मिले थे । उनकी
एक सन्तपर बड़ी
श्रद्धा थी और
वे उनकी सेवा किया
करते थे । वे कहते
थे कि जब महाराजको
प्यास लगती तो
मेरे मनमें आती
कि महाराजको प्यास
लगी है; अत: मैं जल ले जाता
और वे पी लेते ।
ऐसे ही जो शुद्ध
पतिव्रता होती
है, उसको पतिकी
भूख-प्यासका पता
लग जाता है तथा
पतिकी रुचि भोजनके
किस पदार्थमें
है‒इसका भी पता
लग जाता है । भोजन
सामने आनेपर पति
भी कह देता है कि
आज मेरे मनमें
इसी भोजनकी रुचि
थी । इसी तरह
जिसके मनमें भगवान्को
भोग लगानेका भाव
होता है, उसको भगवान्की
रुचिका, भूख-प्यासका
पता लग जाता है
।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा
और नाम-जपकी महिमा’
पुस्तकसे
________________
*अर्चायामेव
हरये पूजां यः श्रद्धयेहते
।
न तद्भक्तेषु
चान्येषु स भक्त:
प्राकृत: स्मृतः
॥
(श्रीमद्भा॰ ११।२।४७)
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