(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जो कोई भी
आस्तिक पुरुष
होता है, वह भले ही
मूर्तिपूजासे
परहेज रखे, पर उसके द्वारा
मूर्तिपूजा होती
ही है । कैसे ? वह वेद आदि ग्रन्थोंको
मानता है, उनके अनुसार चलता
है तो यह मूर्तिपूजा
ही है; क्योंकि
वेद भी तो (लिखी
हुई पुस्तक होनेसे)
मूर्ति ही है ।
वेद आदिका आदर
करना मूर्तिपूजा
ही है । ऐसे ही मनुष्य
गुरुका, माता-पिताका, अतिथिका आदर-सत्कार
करता है, अन्न-जल-वस्त्र
आदिसे उनकी सेवा
करता है तो यह सब
मूर्तिपूजा ही
है । कारण कि गुरु, माता-पिता आदिके
शरीर तो जड़ हैं, पर शरीरका आदर
करनेसे उनका भी
आदर होता है, जिससे वे प्रसन्न
होते हैं । तात्पर्य है
कि मनुष्य कहीं
भी, जिस-किसीका, जिस- किसी
रूपसे आदर-सत्कार
करता है, वह सब मूर्तिपूजा
ही है । अगर मनुष्य
भावसे मूर्तिमें
भगवान्का पूजन
करता है तो वह भगवान्का
ही पूजन होता है
।
एक वैरागी
बाबा थे । वे एक
छातेके नीचे रहते
थे और वहीं शालग्रामका
पूजन किया करते
थे । जो लोग मूर्तिपूजाको
नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी
यह किया
(मूर्तिपूजा)
बुरी लगती थी ।
उन दिनों वहाँ
हुक साहब नामक
एक अंग्रेज अफसर
आया हुआ था । उस
अफसरके सामने
उन लोगोंने बाबाजीकी
शिकायत कर दी कि
यह मूर्तिकी पूजा
करके सर्वव्यापक
परमात्माका तिरस्कार
करता है आदि-आदि
। हुक साहबने कुपित
होकर बाबाजीको
बुलाया और उनको
वहाँसे चले जानेका
हुक्म दे दिया
। दूसरे दिन बाबाजीने
हुक साहबका एक
पुतला बनाया और
उसको लेकर वे शहरमें
घूमने लगे । वे
लोगोंको दिखा-दिखाकर
उस पुतलेको जूता
मारते और कहते
कि यह हुक साहब
बिलकुल बेअक्ल
है, इसमें कुछ
भी समझ नहीं है
आदि-आदि । लोगोंने
पुन: हुक साहबसे
शिकायत कर दी कि
यह बाबा आपका तिरस्कार
करता है, आपका पुतला बनाकर
उसको जूता मारता
है । हुक साहबने
बाबाजीको बुलाकर
पूछा कि तुम मेरा
अपमान क्यों करते
हो ? बाबाजीने
कहा कि मैं आपका
बिलकुल
अपमान नहीं करता,
मैं तो आपके इस
पुतलेका अपमान
करता हूँ; क्योंकि यह बड़ा
ही मूर्ख है । ऐसा
कहकर बाबाजीने
पुतलेको जूता
मारा । हुक साहब
बोले कि मेरे पुतलेका
अपमान करना मेरा
ही अपमान करना
है । बाबाजीने
कहा कि आप इस पुतलेमें
अर्थात् मूर्तिमें
हैं ही नहीं, फिर भी केवल
नाममात्रसे आपपर
इतना असर पड़ता
है । हमारे भगवान्
तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें
हैं; अत: जो श्रद्धापूर्वक
मूर्तिमें भगवान्का
पूजन करता है, उससे क्या
भगवान् प्रसन्न
नहीं होंगे ? मैं मूर्तिमें
भगवान्का पूजन
करता हूँ तो यह
भगवान्का आदर
हुआ या निरादर ? हुक साहब बोले
कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक
मूर्तिपूजा कर
सकते हो । बाबाजी
अपने स्थानपर
चले गये ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा
और नाम-जपकी महिमा’
पुस्तकसे
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