(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
प्रश्न‒कुछ लोग मन्दिरमें
अथवा मन्दिरके
पास बैठकर मांस, मदिरा
आदि निषिद्ध पदार्थोंका
सेवन करते हैं, फिर भी
भगवान् उनको क्यों
नहीं रोकते ?
उत्तर‒माँ-बापके
सामने बच्चे उद्दण्डता
करते हैं तो माँ-बाप
उनको दण्ड नहीं
देते; क्योंकि
वे यही समझते हैं
कि अपने ही बच्चे
हैं, अनजान
हैं, समझते
नहीं हैं । इसी तरह भगवान्
भी यही समझते हैं
कि ये अपने ही अनजान
बच्चे हैं; अत: भगवान्की
दृष्टि उनके आचरणोंकी
तरफ जाती ही नहीं
। परन्तु जो लोग
मन्दिरमें निषिद्ध
पदार्थोंका सेवन
करते हैं, निषिद्ध
आचरण करते हैं, उनको इस अपराधका
दण्ड अवश्य ही
भोगना पड़ेगा ।
प्रश्न‒पहले कबीरजी आदि
कुछ सन्तोंने
मूर्तिपूजाका
खण्डन क्यों किया ?
उत्तर‒जिस समय जैसी
आवश्यकता होती
है, उस समय सन्त-महापुरुष
प्रकट होकर वैसा
ही कार्य करते
हैं । जैसे, पहले जब शैवों
और वैष्णवोंमें
बहुत झगड़ा होने
लगा, तब
तुलसीदासजी महाराजने
रामचरितमानसकी
रचना की, जिससे दोनोंका
झगड़ा मिट गया ।
गीतापर बहुत-सी
टीकाएँ लिखी गयी
हैं; क्योंकि
समय-समयपर जैसी
आवश्यकता पड़ी, महापुरुषोंके
हृदयमें वैसी
ही प्रेरणा हुई
और उन्होंने गीतापर
वैसी ही टीका लिखी
। जिस समय बौद्धमत
बहुत बढ़ गया था, उस समय शंकराचार्यजीने
प्रकट होकर सनातन-धर्मका
प्रचार किया ।
ऐसे ही जब मुसलमानोंका
राज्य था, तब वे मन्दिरोंको
तोड़ते थे और मूर्तियोंको
खण्डित करते थे
। अत: उस समय कबीरजी
आदि सन्तोंने
कहा कि हमें मन्दिरोंकी, मूर्तिपूजाकी
जरूरत नहीं है; क्योंकि हमारे
परमात्मा केवल
मन्दिरमें या
मूर्तिमें ही
नहीं हैं, प्रत्युत सब जगह
व्यापक हैं । वास्तवमें
उन सन्तोंका मूर्तिपूजाका
खण्डन करनेमें
तात्पर्य नहीं
था, प्रत्युत
लोगोंको किसी
तरह परमात्मामें
लगानेमें ही तात्पर्य
था ।
प्रश्न‒अभी तो वैसा समय
नहीं है, मुसलमान
मन्दिरोंको, मूर्तियोंको
नहीं तोड़ रहे हैं, फिर भी
उन सन्तोंके सम्प्रदायमें
चलनेवाले मूर्तिपूजाका, साकार
भगवान्का खण्डन
क्यों करते हैं ?
उत्तर‒किसीका खण्डन
करना अपने मतका
आग्रह है; क्योंकि दूसरोंके
मतका खण्डन करनेवाले
अपने मतका प्रचार
करना चाहते हैं, अपनी प्रतिष्ठा
चाहते हैं । अभी जो मन्दिरोंका, मूर्तिपूजाका, दूसरोंके
मतका खण्डन करते
हैं, वे मतवादी
वस्तुत: परमात्मतत्त्वको
नहीं चाहते, अपना उद्धार
नहीं चाहते, प्रत्युत
अपनी व्यक्तिगत
पूजा चाहते हैं, अपनी टोली
बनाना चाहते हैं, अपने सम्प्रदायका
प्रचार चाहते
हैं । ऐसे मतवादियोंको
परमात्माकी प्राप्ति
नहीं होती । जो
अपने मतका आग्रह
रखते हैं, वे मतवाले
होते हैं और मतवालोंकी
बात मान्य (माननेयोग्य)
नहीं होती‒
बातुल भूत बिबस
मतवारे
।
ते नहिं बोलहिं
बचन बिचारे ॥
(मानस १।११५।७)
ऐसे मतवाले
लोग तत्त्वको
नहीं जान सकते‒
हरीया रत्ता
तत्तका, मतका रत्ता
नांहि ।
मत का रत्ता
से फिरै, तांह सच पाया
नाहि ॥
हरीया तत्त
विचारियै, क्या मत सेती
काम ।
तत्त बसाया
अमरपुर, मत का जमपुर
धाम ॥
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा
और नाम-जपकी महिमा’
पुस्तकसे
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