।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष अमावस्या, वि.सं.–२०७०, बुधवार
परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?



(शेष आगेके ब्लॉगमें)
अगर हमने यह सिद्धान्त बना लिया कि परमात्मतत्त्व सगुण ही है अथवा निर्गुण ही हैतो फिर उसकी प्राप्ति हो ही गयीहमने उसको जान ही लियाफिर साधन करनेकी क्या जरूरत रही अगर हम उसकी प्राप्ति नहीं मानतेअपनेको ज्ञात-ज्ञातव्य नहीं मानते और साधन करनेकी जरूरत समझते हैं तो हमने अभी उसको तत्त्वसे जाना नहीं है । वास्तवमें आजतक वेदपुराणसन्तवाणी आदिमें परमात्माका जितना वर्णन हो चुका है जितना वर्णन वर्तमानमें हो रहा है और जितना वर्णन भविष्यमें होगावह सब-का-सब मिलकर भी परमात्माका पूरा वर्णन हो ही नहीं सकता । परमात्माके विषयमें हम जितनी कल्पना कर सकते हैंपरमात्मा उससे भी विलक्षण हैं !* वेदपुराण,सन्तवाणी आदिमें परमात्माका जो वर्णन हुआ हैवह वाद-विवादके लिये नहीं हैप्रत्युत उसका उद्देश्यउसकी सार्थकता यही है कि मनुष्य परमात्माको वैसा मानकर उनके सम्मुख हो जाय और उनकी प्राप्तिमें तत्परतासे लग जाय तथा उनकी प्राप्ति कर ले ।

परमात्मा सगुण हैंनिर्गुण नहीं हैं अथवा परमात्मा निर्गुण हैंसगुण नहीं हैं‒इसमें विधि-अंश (परमात्मा सगुण हैं या परमात्मा निर्गुण हैं‒ऐसा) मानना तो ठीक हैपर निषेध-अंश (परमात्मा सगुण नहीं हैं या परमात्मा निर्गुण नहीं हैं‒ऐसा) मानना बहुत बड़ी गलती है । कारण किनिषेध-अंश माननेसे हमने एक तो परमात्माको सीमित मान लियाउनमें कमी मान ली और दूसरेजिसका हमने निषेध कियाउसकी उपासना करनेवालोंके हृदयको ठेस पहुँचायी,उनको विचलित कियाजो कि एक बड़ा अपराध है । कारण कि दूसरे मतको माननेवाला साधक कोई निषिद्ध आचरण (पाप) नहीं करताप्रत्युत जिस किसी प्रकारसे भगवान्‌में ही लगा हुआ है । अत: उसकी निन्दा करनेसे उसका तो कुछ नहीं बिगड़ेगापर अपनी हानि हो ही जायगी अर्थात् हमारी उपासनामें बाधा लग ही जायगी । परमात्मा सगुण नहीं हैं अथवा निर्गुण नहीं हैं‒इस प्रकार हम अपने उपास्यको सीमित बनायेंगे तो उसकी उपासना भी सीमित ही होगी । भगवान्‌के एक रूपकी माननेवालोंके साथ राग होगा और दूसरे रूपको माननेवालोंके साथ द्वेष होगा तो इस प्रकार राग-द्वेषके रहते हुए परमात्माकी प्राप्ति कैसे होगी हम अपनी समझ बता सकते हैं कि हमें तो भगवान्‌का अमुक रूप समझमें आता हैपर परमात्माका ठेका लेना कि वे ऐसे ही हैं‒यह गलतीकी बात है ।

हमें तो सगुण ही प्रिय लगता है अथवा हमें तो निर्गुण ही ठीक लगता है या हमें तो द्वैत सिद्धान्त ही ठीक जँचता है अथवा हम तो अद्वैत सिद्धान्तको ही ठीक समझते हैं‒ऐसा कहना तो साधकके लिये ठीक हैपर दूसरेके इष्टसिद्धान्त,मत आदिकी निन्दा या खण्डन करना साधकके लिये महान् बाधक है । भगवान्‌के एक रूपको ही मानकर उसका आग्रह,पक्षपात रखना ‘अनन्यता’ नहीं है । अनन्यताका तात्पर्य है‒भगवान्‌के सिवाय संसारमें कहीं भी आसक्ति न करना ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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       देखें‒गीताप्रेससे प्रकाशित ‘सहज साधना’ पुस्तकमें  ‘वर्णनातीतका वर्णन’ शीर्षक लेख