(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘है’ को मान लो तो ‘नहीं’ कैसे रहेगा ? जिसका नाम ही ‘नहीं’ है, वह कैसे टिकेगा ? इसमें बाधा यही है कि आप इसका आदर नहीं करते, इसको महत्त्व नहीं देते । अभी आपको दस रुपये मिल जायँ तो उसका एक महत्त्व है, पर जो नित्य-निरन्तर रहता है, उसका महत्व नहीं है‒यह बड़े आश्चर्यकी बात है ! शास्त्रोंने, वेदोंने, पुराणोंने ‘है’ को ही महत्व दिया है । सन्त-महात्माओंने भी इसीको महत्व दिया है तभी तो संसारके बनने-बिगड़नेका उनपर असर नहीं पड़ता । जो निरन्तर रहता है, उस ‘है’ में क्या फर्क पड़े ? क्या दुःख हो ? क्या सन्ताप हो ?
है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं ॥
जो है वह आँखोंसे नहीं दीखता । जो आँखोंसे दीखता है, वह रहता नहीं । कहते हैं कि जो आँखोंसे नहीं दीखता,उसको कैसे मानें ? यह समझदारका प्रश्न नहीं है । समझदारका प्रश्न तो यह होना चाहिये कि जो आँखोंसे दीखता है, उसको कैसे मानें ? क्योंकि आँखोंसे जो दीखता है, वह तो मिटता है, बिगड़ता है, बदलता है । यह बिलकुल प्रत्यक्ष बात है । जो स्थिर नहीं रहता, बदलता है, उसको हम कैसे मान सकते हैं ? नदीमें जैसे जल बहता है, ऐसे सब संसार बह रहा है, मौतकी तरफ जा रहा है, अभावकी तरफ जा रहा है । इसको हम ‘है’ कैसे मानें ? बड़ी सीधी और सरल बात है । इसमें कठिनता है ही नहीं । कठिनता यही है कि आप इसको महत्त्व नहीं दे रहे हैं, इसको कीमती नहीं समझ रहे हैं ।
जो पुरुष संसारको महत्त्व नहीं देते, धन-सम्पत्तिको महत्त्व नहीं देते, वे भी जीते हैं कि नहीं ? आप महत्त्व नहीं दोगे तो क्या मर जाओगे ? जो महत्त्व नहीं देते, उनके पास कोई अधिक महत्त्ववाली वस्तु है, तभी तो महत्त्व नहीं देते ! उनमें यह सन्देह ही नहीं होता, शंका ही नहीं होती कि इसके बिना काम कैसे चलेगा ! जैसे बचपनमें आप खिलौनोंको महत्व देते थे, पर अब उनको महत्व नहीं देते । कारण कि अब आपने रुपये आदि चीजोंको महत्त्व दे दिया । रुपये आदिको महत्त्व न देकर सत्-तत्त्व (‘है’) को महत्त्व दो तो असत्की सत्ताका स्वत: ही निरादर हो जायगा ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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