(गत ब्लॉगसे आगेका)
ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), अध्यात्म (अनन्त जीव) तथा अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयकी सम्पूर्ण क्रियाएँ) ‒यह ‘ज्ञान’ का विभाग है और अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पाञ्चभौतिक जगत्), अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ देवतासहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता), तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)‒यह ‘विज्ञान’ का विभाग है । ज्ञानके विभागमें निर्गुणकी और विज्ञानके विभागमें सगुणकी मुख्यता है ।
गीतामें भगवान्ने दो निष्ठाएँ बतायी हैं‒कर्मयोग और ज्ञानयोग । ये दोनों ही निष्ठाएँ लौकिक हैं‒‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा’ (गीता ३ । ३) । परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । कारण कि कर्मयोगमें ‘क्षर’ (संसार) की प्रधानता है और ज्ञानयोगमें ‘अक्षर’ (जीवात्मा) की प्रधानता है । क्षर और अक्षर‒दोनों ही लोकमें हैं‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरक्षाक्षर एव च ।’ (गीता १५ । १६) । इसलिये कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं । परन्तु भक्तियोगमें ‘परमात्मा’ की प्रधानता है,जो क्षर और अक्षर दोनोंसे विलक्षण है‒
उत्तम: पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृत: ।
(गीता १५ । १७)
‘उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नामसे कहा गया है ।’
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम ।
(गीता १५ । १६)
‘मैं क्षरसे अतीत हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ ।’
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः ।
(श्वेताश्वतर॰ १ । १०)
‘प्रकृति तो क्षर (नाशवान्) है और इसको भोगनेवाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अक्षर (अविनाशी) है । इन क्षर और अक्षर‒दोनोंको एक ईश्वर अपने शासनमें रखता है ।’
इसलिये भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । भगवान्के समग्ररूपमें ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्म‒इनमें लौकिक निष्ठा (कर्मयोग और ज्ञानयोग) की बात आयी है और अधिभूत,अधिदैव तथा अधियज्ञ‒इनमें अलौकिक निष्ठा (भक्तियोग) की बात आयी है ।
ज्ञान लौकिक है* और विज्ञान अलौकिक है । आत्मज्ञान लौकिक है और परमात्मज्ञान अलौकिक है । मुक्ति लौकिक है और प्रेम अलौकिक है । करणसापेक्ष साधन लौकिक है और करणनिरपेक्ष साधन अलौकिक है । लौकिक तथा अलौकिक‒दोनों ही समग्र-भगवान्के रूप हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । (गीता ४ । ३८)
‘इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन नहीं है ।’
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