(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म‒ये तीनों लौकिक कैसे हैं ?
उत्तर‒भगवान्ने ब्रह्मको ‘अक्षर’ कहा है‒‘अक्षर ब्रह्म परमम्’ (गीता ८ । ३) और जीवको भी ‘अक्षर’ कहा है‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरक्षाक्षर एव च ।’ (गीता १५ । १६) अत: ब्रह्म और जीवकी एकता होनेसे ब्रह्म भी लौकिक है । इसलिये जीव और ब्रह्मको एक माना गया है‒‘जीवो ब्रह्मैव नापरः ।’ क्षेत्रके साथ सम्बन्ध होनेसे जो ‘जीव’कहलाता है, वही क्षेत्रके साथ सम्बन्ध न होनेसे ‘ब्रह्म’कहलाता है‒‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।’(गीता १३ । २) । तात्पर्य है कि जो व्यष्टिरूपसे जीव है वही समष्टिरूपसे ब्रह्म है । अत: जैसे जीव लोकमें है, ऐसे ही ब्रह्म भी लोकमें है अर्थात् ब्रह्म लौकिक निष्ठासे प्रापणीय तत्त्व है ।
‘अध्यात्म’ अर्थात् जीवने जगत्को धारण किया हुआ है‒‘जीवभूता महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।’ (गीता ७ । ५)जीवकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इसलिये जगत्के संगसे जीव भी जगत् अर्थात् लौकिक हो जाता है । अतः गीतामें जीवके लिये ‘जगत्’ शब्द भी आया है‒
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
(गीता ७ । १३)
‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सब जगत् इन गुणोंसे पर अविनाशी मेरेको नहीं जानता ।’
लोकमें होनेके कारण जीव लौकिक है‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।’ (गीता १५ । १६),‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५ । ७) ।
कर्म दो प्रकारके होते हैं‒सकाम और निष्काम । ये दोनों ही कर्म लोकमें होनेसे लौकिक हैं‒
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ॥
(गीता ३ । १)
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
(गीता ४ । १२)
‘कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके’ (गीता१५ । २)
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
(गीता ३ । ३) *
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* गीतामें ‘लोक’ शब्द अनेक अर्थोंमें प्रयुक्त हुआ है । इसको जाननेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ ग्रन्थमें ‘गीताका अनेकार्थ-शब्दकोश’ देखना चाहिये ।
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