(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ‒ये तीनों अलौकिक कैसे हैं ?
उत्तर‒अधिभूत अर्थात् सम्पूर्ण पाञ्चभौतिक जगत् भगवान्का शरीर होनेसे अलौकिक ही हुआ‒
खं वायुमग्निं सलिल महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । २ । ४१)
‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, जीव-जन्तु, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र‒सब-के-सब भगवान्के ही शरीर हैं‒ऐसा मानकर भक्त सभीको अनन्यभावसे प्रणाम करता है ।’
भगवान्ने अर्जुनको अपना जो विराट्रूप दिखाया था, वह दिव्य (अलौकिक) था‒‘नानाविधानि दिव्यानि’(गीता ११ । ५), ‘अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्’(गीता ११।१०), ‘दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्’(गीता ११ । ११), ‘ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्’ (गीता ११ । १५) । वह दिव्य विराट्रूप भगवान्ने अपने शरीरमें ही दिखाया था‒
भगवान्के वचन हैं‒‘मम देहे गुडाकेश’ (११ । ७)
सञ्जयके वचन हैं‒‘अपश्यदेवदेवस्य शरीरे’ (११।१३)
अर्जुनके वचन हैं‒‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे’ (११।१५)
अतः भगवान्का ही विराट्रूप होनेसे यह पाञ्चभौतिक जगत् भी अलौकिक ही है । भगवान्ने अपनी विभूतियोंको भी दिव्य कहा है‒‘हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (१० । १९), ‘नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप’ (१० । ४०) । अर्जुनने भी कहा है‒‘वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (१०।१६) । परन्तु जीवको अज्ञानवश अपनी बुद्धिसे राग-द्वेषके कारण यह जगत् लौकिक दीखता है । इसलिये जगत् न तो महात्माकी दृष्टिमें है और न भगवान्की दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है । महात्माकी दृष्टिमें सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९), भगवान्की दृष्टिमें सत्-असत् सब कुछ वे ही हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९),पर जीवने राग-द्वेषके कारण जगत्को अपनी बुद्धिमें धारण कर रखा है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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