(गत ब्लॉगसे आगेका)
त्यागकी अपेक्षा अर्पण सुगम होता है । कारण किजिस वस्तुमें मनुष्यकी सत्यत्व और महत्त्वबुद्धि होती है, उसको मिथ्या समझकर यों ही त्याग देनेकी अपेक्षा किसी व्यक्तिके अर्पण कर देना, उसकी सेवामें लगा देना सुगम पड़ता है । फिर जो परम श्रद्धास्पद, प्रेमास्पद भगवान् हैं, उनको अर्पण करनेकी सुगमताका तो कहना ही क्या ! क्योंकि सम्पूर्ण वस्तुएँ (मात्र संसार) पहलेसे ही भगवान्की हैं । उनको भगवान्के अर्पण करना केवल अपनी भूल मिटाना है । संसारको भगवान्का मानते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । अत: संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये भक्तको विवेककी जरूरत नहीं है । तात्पर्य है कि भक्त संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं करता, प्रत्युत उसको भगवान्का और भगवत्स्वरूप मानता है ।
विवेक पारमार्थिक विषयमें भी काम करता है और लौकिक विषयमें भी । लौकिक विषयमें विवेकका उपयोग करके मनुष्य बड़ा वैज्ञानिक, जज, वकील आदि बन सकता है, तरह-तरहके आविष्कार कर सकता है, पर तत्त्वप्राप्ति नहीं कर सकता । कारण कि राग साथमें रहनेसे लौकिक विषयोंका विवेक भोग और संग्रहका महत्त्व बढ़ाकर संसारमें फँसाता है, पापोंमें लगाकर पतन करता है । तात्पर्य है कि संसारकी सत्ता और महत्ता साथमें रहनेसे विवेक बहुत घातक, अनर्थका हेतु होता है । वास्तवमें लौकिक विषयोंका विवेक ‘अविवेक’ ही है । पारमार्थिक विषयका विवेक अर्थात् सत्-असत्का विवेक ही वास्तविक विवेक है* । सत्-असत्का विवेक होनेसे पारमार्थिक अथवा लौकिक दोनों कार्य ठीक होते हैं; क्योंकि विवेकी मनुष्यकी बुद्धि हरेक विषयमें प्रविष्ट होती है ।
पारमार्थिक विवेकवाला मनुष्य लौकिक विषयोंका भी ठीक ढंगसे उपयोग कर सकता है । परन्तु केवल लौकिक विवेकवाला मनुष्य लौकिक विषयोंका भी ठीक ढंगसे उपयोग नहीं कर पाता‒
उपभोक्तुं न शक्नोति श्रियं प्राप्यापि मानवः ।
आकण्ठजलमग्नोऽपि श्वा लेढीति स्वजिह्वया ॥
‘प्रारब्धवश धन-सम्पत्ति प्राप्त करके भी अविवेकी मनुष्य उसका ठीक ढंगसे उपभोग नहीं कर सकता; जैसे‒गलेतक जलमें डूबे होनेपर भी कुत्ता जीभसे ही जलको चाटता है (उसको सीधे जल पीना आता ही नहीं) ।’
वास्तविक विवेक वैराग्यका जनक है । यदि वैराग्य न हो तो विवेक वास्तविक (असली) नहीं है । ‘मेरा असत्के साथ सम्बन्ध है ही नहीं’‒इस विवेकसे वैराग्य होता ही है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
(गीता १८ । ३०)
‘हे पृथानन्दन ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको, कर्तव्य और अकर्तव्यको, भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है ।’
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