(गत ब्लॉगसे आगेका)
विवेकमें सत् और असत्‒दो चीज होती है, इसलिये वैराग्य होनेपर भी अन्तःकरणमें असत्की अति सूक्ष्म सत्ता रहनेसे उसकी सूक्ष्म वासना रह जाती है । वह वासना प्रेम-भक्तिसे ही दूर होती है‒
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
(मानस, उत्तर॰ ४९ । ३)
उस सूक्ष्म वासनाको सर्वथा नष्ट करनेकी ताकत प्रेममें ही है । प्रेममें बिना विचार किये स्वतः असत्का आकर्षण मिटता है; क्योंकि सत्-तत्त्वमें प्रेम होनेपर असत्की तरफ दृष्टि जाती ही नहीं, असत्से सर्वथा विमुखता हो जाती है‒‘सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं’ (मानस, अरण्य॰ ५ । ६) । तात्पर्य है कि प्रेममें दो चीज नहीं होती, प्रत्युत एक भगवान् ही होते हैं । अतः विवेक तो तटस्थ रहता है, पर प्रेम भगवान्में लगाता है । संसारमें जैसे रुपयोंमें आकर्षित करनेकी शक्ति लोभमें ही है, ऐसे ही भगवान्में आकर्षित करनेकी शक्ति प्रेममें ही है । यह शक्ति विवेकमें नहीं है । हाँ, यदि तीव्र जिज्ञासा हो तो विवेकमें भी सत्-तत्त्वकी मुख्यता हो जाती है । सत्-तत्त्वकी मुख्यता होनेपर वह विवेक केवल वैराग्यका जनक ही नहीं रहता, प्रत्युत तत्त्वबोधका प्रापक हो जाता है ।
विवेकमार्गमे सत् और असत्‒दोनोंकी मान्यता साथ-साथ रहनेसे असत्की अति सूक्ष्म सत्ता अर्थात् अति सूक्ष्म अहम् दूरतक साथ रहता है । यह सूक्ष्म अहम् मुक्त होनेपर भी रहता है । यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर यह परमात्मासे अभिन्न होनेमें बाधक होता है । इसलिये विवेकमार्गमें ज्ञानियोंकी अथवा दार्शनिकोंकी मुक्ति तो हो सकती है, पर परमात्माके साथ अभिन्नता अर्थात् प्रेम नहीं हो सकता । इस सूक्ष्म अहम्के कारण ही दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें परस्पर मतभेद रहता है । विश्वासमार्गमे आरम्भसे ही भक्त एक परमात्माके सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानता । इसलिये वह परमात्माके साथ अभिन्न हो जाता है । परमात्माके साथ अभिन्न होनेपर सूक्ष्म अहम् नहीं रहता और उससे पैदा होनेवाले सम्पूर्ण मतभेद समाप्त हो जाते हैं । इसलिये ज्ञानकी एकतासे प्रेमकी एकता श्रेष्ठ है । कारण कि ज्ञानमें तो भेद रह सकता है, पर प्रेममें कोई भेद रहता ही नहीं ।
विवेकमार्गमें विवेकपूर्वक किया जानेवाला साधन दो प्रकारका होता है‒विध्यात्मक और निषेधात्मक । विध्यात्मक साधनमें सूक्ष्म अहम् बना रहता है । कारण कि इसमें अभ्यासकी मुख्यता रहनेसे असत्का आश्रय रहता है । इसमें साधकका यह विचार रहता है कि मुझे सत्में स्थिति करनी है । यह विचार रहनेसे असत्का संग छूटनेपर भी सत्में ‘स्थितिवाला’ रह जाता है‒यही सूक्ष्म अहम् है । यह सूक्ष्म अहंभाव दार्शनिकोंमें एकता नहीं होने देता । दार्शनिकोंमें मतभेद रहनेसे उनके दर्शनोंमें भी मतभेद रहता है अर्थात् वे अपने-अपने मतके अनुसार परमात्माको मानते हैं, जो कि समग्रका अंश (आंशिक) होता है, समग्र, नहीं । वे परमात्माके उस समग्र रूपको नहीं जानते, जिसमें कोई मतभेद नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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