(गत ब्लॉगसे आगेका)
सूक्ष्म अहम्में स्वयं संसारके सम्मुख न होकर परमात्मतत्त्वके सम्मुख रहता है । यह सूक्ष्म अहम् ज्ञानकी एकतामें रहता है, प्रेमकी एकतामें नहीं । कारण कि भक्तकी खुदकी निष्ठा नहीं होती, प्रत्युत वह भगवन्निष्ठ होता है; परन्तु ज्ञानीकी खुदकी निष्ठा होती है । अतः भक्तिमें अहंता बदलकर भगवान्में लीन हो जाती है, जिससे अहम्का संस्कार नहीं रहता । परन्तु ज्ञानमें अहंताको मिटानेसे अत्यन्त सूक्ष्म अहम् रह जाता है । हाँ, अधिक भूमिका चढ़ जानेसे ज्ञानीका भी वह अत्यन्त सूक्ष्म अहम् मिट जाता है ।
भेद ज्ञानमें रहता है, प्रेममें नहीं । प्रेममें समग्र परमात्माकी प्राप्ति होती है; क्योंकि समग्रता (‘वासुदेवः सर्वम्’) की प्राप्तिमें प्रेम कारण है, ज्ञान कारण नहीं है । एक विचित्र बात है कि ज्ञानमार्गमें मुक्ति भी प्रेमसे ही होती है ! कारण कि अपने स्वरूप (सत्ता) में प्रेम, आकर्षण हुए बिना स्वरूपमें स्थिति नहीं होती । ज्ञानीका अपने स्वरूपमें जो प्रेम होता है, वह प्रेम उसको मुक्त तो कर देगा, पर समग्रताकी प्राप्ति करा दे‒यह नियम नहीं है । कारण कि सत्ताका यह प्रेम सांसारिक आसक्तिकी तरह जन्म-मरण देनेवाला तो बिलकुल नहीं होता, पर सब मतोंका समान आदर करनेमें बाधक होता है, जबकि वास्तवमें साधन करनेवाले, असत्से विमुख होकर सत्के सम्मुख होनेवाले सब आदरणीय होते हैं । स्थूल दृष्टिसे भी देखें तो ज्ञानी दूसरोंके साथ एक नहीं होता, जबकि भक्त सबके साथ एक हो जाता है । कारण कि ज्ञानीमें आरम्भमें अभिमान रहता है और भक्तमें आरम्भसे ही नम्रता,दीनता रहती है । हाँ, अगर भक्तमें अभिमान होगा तो वह भी दूसरोंके साथ एक नहीं हो सकेगा । अभिमानका नाश तभी होगा, जब ज्ञानी नहीं रहेगा, प्रत्युत केवल ज्ञान रहेगा, प्रेमी नहीं रहेगा, प्रत्युत केवल प्रेम रहेगा । ज्ञानमें अखण्ड आनन्दकी प्राप्ति होती है और भक्तिमें अनन्त आनन्दकी प्राप्ति होती है । अखण्ड आनन्दमें ज्ञानी एकाकी (अकेला) रहता है,इसलिये अखण्ड आनन्दसे उसकी तृप्ति नहीं होती‒‘एकाकी न रमते’ । अखण्ड आनन्दसे अरुचि होनेपर उसमें अनन्त आनन्द अर्थात् प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी पिपासा (प्रेम-प्राप्तिकी लालसा) जाग्रत् होती है ।
जीवन्मुक्तिका आनन्द भी भोग है । उसके छूटनेपर ही प्रेमकी प्राप्ति होती है । जीवन्मुक्तिका आनन्द छूटनेका आनन्द है और प्रेमका आनन्द मिलनेका आनन्द है । प्रेमीको मुक्ति भी खारी लगती है । भगवान् भी प्रेमके भूखे हैं, ज्ञानके भूखे नहीं । ज्ञानके तो वे स्वरूप ही हैं‒‘सच्चित्सुखैकवपुषः’,‘चिदानंदमय देह तुम्हारी’ (मानस, अयोध्या॰ २ । १२७ । ३) ।
वास्तविक अद्वैत प्रेममें ही है । प्रेममें एक भगवान्के सिवाय अन्यकी सत्ता ही नहीं है । प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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