।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७१, शनिवार
अलौकिक साधन-भक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रेमीमें अन्यके भावकी स्कुरणा ही नहीं है । अन्यकी तरफ प्रेमीकी दृष्टि कभी गयी ही नहींहै ही नहींजायगी ही नहींजा सकती ही नहींक्योंकि प्रेममें अन्यका अत्यन्त अभाव है । प्रेमीको सब जगह अपना प्रेमास्पद ही दीखता है‒‘जित देखौं तित स्याममयी है’ । इसलिये प्रेमका स्वरूप अनिर्वचनीय कहा गया है‒
अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम् । मूकास्वादनवत् ।
                                                                        (नारदभक्तिसूत्र ५१ । ५२)

जबतक अन्यकी सत्ता हैतबतक वह साधन-प्रेम है,साध्य-प्रेम (परमप्रेम या पराभक्ति) नहीं । इसलिये ज्ञानमें ‘अनिर्वचनीय ख्याति’ है और प्रेममें ‘अनिर्वचनीय स्वरूप’ है । तात्पर्य है कि ज्ञानमें अन्यका निषेध है और प्रेममें अन्यका अत्यन्त अभाव है । कारण कि प्रेममें समग्र परमात्माकी प्राप्ति है । इसलिये प्रेमीका किसीसे भी वैर-विरोध नहीं होता । प्रेमीकी दृष्टिमें सभी समग्रका अंग होनेसे अपने प्रभु ही हैं,फिर कौन वैर करेगाकिससे करेगा और क्यों करेगा‒‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ ?

उदाहरणके लियेकोई रामकाकोई कृष्णकाकोई शिवका प्रेमी है तो वे सब परस्पर एक हो सकते हैंपर सब ज्ञानी परस्पर एक नहीं हो सकते । अगर प्रेमी और ज्ञानी परस्पर मिलें तो प्रेमी ज्ञानीका जितना आदर करेगाउतना ज्ञानी प्रेमीका नहीं कर सकेगा । इसलिये भक्तोंका लक्षण बताया है‒‘सबहि मानप्रद आपु अमानी’ (मानसउत्तर ३८ । २) । रामायणके आरम्भमें गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सज्जनोंके साथ-साथ दुष्टोंकी भी वन्दना करते हैं और सच्चे भावसे करते हैं‒‘बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ ' (मानसबाल ४ । १) । ऐसा भक्त ही कर सकता हैज्ञानी नहीं ! यद्यपि ज्ञानीका किसीसे कभी किंचिन्मात्र भी वैर नहीं होतातथापि उसमें उदासीनतातटस्थता रहती है । विवेकमार्ग (ज्ञान) में वैराग्यकी मुख्यता रहती है और वैराग्य रूखा होता है । इसलिये ज्ञानीमें भीतरसे कठोरता न होनेपर भी वैराग्यउदासीनताके कारण बाहरसे कठोरता प्रतीत होती है ।

गीतामें कर्मयोगीके लक्षण भी आये हैं (२ । ५५‒७२,६ । ७‒९)ज्ञानीके लक्षण भी आये हैं (१४ । २२‒२५) और भक्तके लक्षण भी आये हैं (१२ । १३‒१९)परन्तु केवल भक्तके लक्षणोंमें ही भगवान्‌ने कहा है‒

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च । (१२ । १३)

 ‘भक्त सब प्राणियोंमें द्वेष-भावसे रहितसबका मित्र (प्रेमी) और दयालु होता है ।’

‒यह लक्षण (मैत्रः करुणः) न कर्मयोगीके लक्षणोंमें आया हैन ज्ञानीके लक्षणोंमेंप्रत्युत केवल भक्तके लक्षणोंमें आया है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे