(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ, सन्त-महात्मा सभी यही बात कहते हैं; क्योंकि यह वास्तविक बात है । सब कुछ परमात्मा-ही-परमात्मा हैं‒ऐसा मानते हुए उपराम हो जायँ‒‘परिपश्यन्नुपरमेत्’ (श्रीमद्भा॰ ११ । २९ । १८) ।‘उपरमेत्’ पदका अर्थ है कि ‘सब कुछ परमात्मा हैं’‒इस वृत्तिसे भी उपराम हो जायँ, इस वृत्तिको भी छोड़ दें । वृत्ति छूटनेपर एक परमात्मा ही रह जाते हैं । फिर न कोई साधक रहता है और न कोई साधन रहता है, प्रत्युत एकमात्र साध्यतत्त्व (परमात्मा) शेष रह जाता है । तात्पर्य है कि साधक साधन करते-करते साधनरूप हो जाता है और साधनरूप होकर साध्यमें लीन हो जाता है ।
जैसे घड़ा मिट्टीसे बनता है और अन्तमें मिट्टीमें ही मिल जाता है, ऐसे ही सब संसार परमात्मासे ही उत्पन्न होता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है‒‘अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा’ (गीता ७ । ६) । अत: सब कुछ परमात्मा ही हुए‒
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
(गीता ७ । ७)
‘हे धनञ्जय ! मेरेसे बढ़कर इस जगत्का दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है । जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण जगत् मेरेमें ही ओतप्रोत है ।’
योगवासिष्ठमें मयूरीके अण्डेका उदाहरण आया है कि जैसे उस एक अण्डेमेंसे अनेक तरहके रंगोंवाला पक्षी निकल आता है, ऐसे ही एक ही परमात्मा अनेक रूपोंसे प्रकट हो जाते हैं । जैसे‒मनुष्य, पशु-पक्षी, लता आदि सब मिट्टीसे बने हैं । भाई-बहनोंके तरह-तरहके रंग-बिरंगे वस्त्र भी मिट्टीसे बने हैं । इसलिये इन सबको आग लगा दें तो अन्तमें एक मिट्टी शेष रह जायगी । ऐसे ही एक परमात्मा अनेक रूपोंसे प्रकट हुए हैं । परन्तु इसको भगवान्की कृपासे ही जान सकते हैं‒
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन ।
जानहिं भगत भगत उर चंदन ॥
(मानस, अयोध्या॰ १२७।२)
वह भगवान्की कृपा हमारेपर है, तभी ऐसी बात हमें मिली है ! अगर कृपा नहीं होती तो ऐसी बात मिल नहीं सकती थी । अपने बलसे, धनसे, विद्यासे, योग्यतासे,उद्योगसे ऐसी बात पढ़ने-सुननेको नहीं मिल सकती ।भगवान्की अहैतुकी कृपासे ही यह बात पढ़ने-सुननेको मिलती है । भगवान् कहते हैं‒
मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्यमञ्जसा ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । १३ । २४)
‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अत: मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है‒यह सिद्धान्त आपलोग विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें, स्वीकार कर लें ।’ तात्पर्य है कि जो भी चिन्तन करते हो, मेरा ही चिन्तन करते हो । जो भी सुनते हो, मेरेको ही सुनते हो । जो भी देखते हो, मेरेको ही देखते हो । जो भी चखते हो, मेरेको ही चखते हो । जो भी स्पर्श करते हो, मेरा ही स्पर्श करते हो । जो भी सूँघते हो, मेरेको ही सूँघते हो । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ- मन-बुद्धिका विषय मैं ही हूँ । मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है । इससे बढ़कर कोई सिद्धान्त नहीं है । अन्तमें यहीं पहुँचना है । इसलिये इसको अभी वर्तमानमें ही स्वीकार कर लें ।
नारायण ! नारायण नारायण !!!
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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