(गत ब्लॉगसे आगेका)
साधकको चाहिये कि वह अपनेमें निर्बलताका अनुभव करके भगवान्पर ही निर्भर हो जाय, उनके ही परायण हो जाय कि हे नाथ ! आपके सिवाय मेरा कोई आश्रय नहीं है, कोई शक्ति नहीं है । ऐसा होकर निश्रिन्त हो जाय तो तत्काल काम होता है, जबकि अपनी साधनाके बलसे वर्षोंतक काम नहीं होता । इसमें एक मार्मिक बात है कि अपनी शक्ति तो पूरी लगानी चाहिये, पर आश्रय भगवान्का ही रखना चाहिये । इसलिये गीताने कहा है‒
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
(७ । २१)
‘जरा और मरणसे मोक्ष पानेके लिये जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको भी जान जाते हैं ।’
साधक यत्न तो करे, पर भरोसा यत्नपर न रखकर भगवान्पर रखे । जैसे भगवान्ने बायें हाथकी छोटी अँगुलीके नखपर गोवर्धन पर्वतको उठा लिया और ग्वालबालोंसे कहा कि सब अपनी-अपनी लाठी लगाओ । सबने अपनी लाठियों लगा दीं, पर उनके मनमें यह भाव आया कि हम सब ग्वालबालोंने अपनी लाठियोंसे सहार लगाया है, तभी पर्वत ठहरा है । उनके मनमें ऐसा भाव आनेपर भगवान्ने उनके बलका अभिमान दूर करनेके लिये अपनी अँगुलीको थोड़ा-सा नीचे किया तो सब चिल्लाने लगे कि अरे दादा, मरे-मरे !भगवान्के द्वारा ऐसा करनेका तात्पर्य था कि तुम अपना बल तो लगाओ, पर आश्रय अपने बलका मत रखो । तत्परता तो पूरी हो, पर अपने बलका अभिमान न हो । इसलिये भगवान्ने अर्जुनसे कहा‒
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् (गीता ११ । ३३)
‘हे सव्यसाची ! तुम निमित्तमात्र बन जाओ ।’
निमित्तमात्र बननेका अर्थ है कि अपनी शक्ति तो पूरी लगाओ, पर अपनी शक्तिका किंचिन्मात्र भी भरोसा मत रखो । थोड़ा-सा काम कर देना निमित्तमात्र बनना नहीं है ।अर्जुन दोनों हाथोंसे बाण चलाते थे । वे दायें हाथसे बाण चलाकर जैसा निशाना मारते थे, वैसा ही निशाना बायें हाथसे बाण चलाकर मारते थे । इसलिये अर्जुनका नाम ‘सव्यसाची’ था । भगवान् अर्जुनको ‘सव्यसाची’ सम्बोधन देकर यह कहते हैं कि तुम अपनी पूरी शक्ति लगाओ, पर मनमें यह बात मत रखो कि मेरे बलसे, मेरी विद्यासे काम हो जायगा, जो कुछ होगा, मेरी कृपाके बलसे होगा । इसलिये भगवान्की कृपाका आश्रय लेकर प्रार्थना की जाय तो भगवान्की अपार विलक्षण शक्ति तत्काल काम करती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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