(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब अपने बलका, योग्यताका, पदका, विद्याका,बुद्धिका, वर्णका, आश्रमका, सम्प्रदायका कोई-न-कोई सहारा रहता है, तब न तो असली प्रार्थना होती है और न असली शरणागति ही होती है । कारण कि अपने बल, योग्यता आदिका सहारा रहनेसे अहम् बना रहता है । जबतक अहम् है, तबतक असली प्रार्थना और असली शरणागति नहीं होती । असली प्रार्थना और असली शरणागतिके बिना काम नहीं होता ।
अपनेमें सर्वथा निर्बलताका अनुभव हो जाय, तब असली प्रार्थना और असली शरणागति होती है‒‘सुने री मैंने निरबल के बल राम ।’ निर्बलताका अर्थ यह नहीं है कि हमारा शरीर निर्बल हो जाय, शरीरमें शक्ति न रहे, हम बीमार हो जायँ । निर्बलताका अर्थ है‒अपने बलसे निराश हो जाना, अपने बलका किंचिन्मात्र भी सहारा, भरोसा या अभिमान न होना । बुद्धिबल, मनोबल, धनबल, तनबल,बाहुबल, विद्याबल आदि सबसे निराशा हो जाय और भगवत्प्राप्तिकी तीव्र आशा हो जाय, तब प्रार्थना तत्काल काम करती है । अपने बलकी आशा रहे और भगवत्प्राप्तिसे निराश हो जायँ, तब प्रार्थना काम नहीं करती ।
ऐसा कोई भी असम्भव काम नहीं है, जो भगवान्की प्रार्थनासे सम्भव न हो जाय, कारण कि भगवान्का बल अपार है, असीम है, अनन्त है । भगवान्के बलका वर्णन शब्दोंसे कोई भी नहीं कर सकता । हम उनको जितना अपार,असीम, अनन्त समझते हैं, उससे भी वे बहुत विलक्षण अपार हैं, विलक्षण असीम हैं, विलक्षण अनन्त हैं । अपार, असीम और अनन्त शब्द तो सापेक्ष हैं अर्थात् पारकी अपेक्षा अपार है, सीमाकी अपेक्षा असीम है अन्तकी अपेक्षा अनन्त है, पर भगवान् निरपेक्ष हैं । उनकी प्रार्थना और शरणागति निर्बल होनेसे होती है‒
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सरयो नहिं काम ।
निरबल ह्वै बलराम पुकारयो, आये आधे नाम ॥
एक भगवान्के सिवाय किसीका आश्रय न रहे‒
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥
जबतक बल, बुद्धि, योग्यता, वर्ण, आश्रम आदिका किञ्चिन्मात्र भी आश्रय है, तबतक अनन्य पुकार नहीं होती । अपने बल, बुद्धि आदिका किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न हो और ऐसा अनुभव हो कि मैं अपने बल, बुद्धि, योग्यता आदिसे भगवान्को प्राप्त कर ही नहीं सकता, अपने दुःखको दूर कर ही नहीं सकता, तब भगवान्का बल काम करता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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