(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्ने आपको जो काम दिया है, उसको ठीक तरहसे करो । अर्जुनने भी यही कहा‒‘करिष्ये वचनं तव’(गीता १८ । ७३) ‘अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ।’भगवान्का काम है, भगवान्का ही घर है, भगवान्का ही सब द्रव्य है, भगवान्का ही सब परिवार है ! अतः भगवान्का काम उत्साहसे करो, अच्छी तरहसे करो । होनेकी चिन्ता मत करो; क्योंकि होना आपके अधीन है ही नहीं । आलस्य-प्रमाद मत करो । निरर्थक समय बरबाद मत करो । उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करो । क्या होगा, क्या नहीं होगा‒इसको भगवान्पर छोड़ दो कि तू जाने, तेरा काम जाने ।
जो भाई-बहन जहाँ हैं, वहीं सुचारुरूपसे, मर्यादासे,उत्साहसे अपने कर्तव्यका पालन करें और चिन्ता न करें ।
चिन्ता दीनदयालको, मो मन सदा आनन्द ।
जायो सो प्रतिपालसी, रामदास गोबिन्द ॥
चिन्ता हम क्यों करें ! जो मालिक है, वह चिन्ता करे । हम तो अपनी जिम्मेवारीका काम ठीक तरहसे करेंगे । अच्छा-मन्दा मानना हमारा काम नहीं है ।
जो पदार्थ, सामग्री मिली है, उसके द्वारा उदारतापूर्वक सबकी सेवा करो, हित करो । संसारकी चीजोंको अपनी मत मानो । कोई भूखा आ जाय तो उसको भोजन दे दो । नंगा आ जाय तो उसको कपडा दे दो । वह कहे कि ‘सब मेरेको दे दो’ तो उससे कह दो कि ‘सब तेरेको कैसे दे दें ? मैं भी निर्वाह करता हूँ, तू भी निर्वाह कर ले भाई ! न धन तू साथमें लाया है न मैं लाया हूँ ।’ रामजीने भेजा है तो सबका उपकार करना है । नहीं भेजा है तो जै रामजीकी ! अपने क्या हर्ज है ! ये जो चमगादड़ होते हैं न, जो वृक्षोंपर लटके रहते हैं, उनके यहाँ कोई मेहमान आ जाय तो वे उसका क्या आदर करते हैं ? कि हम भी लटकते हैं, आप भी लटको ! ऋषिकेशमें सत्संग करते थे । वहाँ कोई सन्त आता तो कहते कि पधारो महाराज ! विराजो । हम भी भिक्षा माँगकर खाते हैं, आप भी भिक्षा माँगो और खाओ !
राग-द्वेष न करें । जो मिले, उसमें सन्तुष्ट रहें‒‘जथा लाभ संतोष सदाई’ (मानस ७ । ४६ । १) । भगवान् जो सुख-दुःख भेजें, उसमें ही राजी रहें । जो मालिकके कहनेमें चलता है, मालिक उसके वशमें हो जाता है । ठाकुरजी जो परिस्थिति भेजें, उसीमें राजी रहें तो ठाकुरजी वशमें हो जायेंगे ! थोड़ी-सी सावधानी रखें कि जो बदलता रहता है,उसमें क्या राजी और क्या नाराज हों ! ‘पुनः प्रभात पुनरेव शर्वरी पुनः शशांक पुनरुद्यतो रविः ।’ कभी सबेरा होता है,कभी साँझ होती है; कभी रात होती है, कभी दिन होता है‒यह तो होता ही रहता है, बदलता ही रहता है । संसारके पदार्थ आते-जाते रहते हैं । परन्तु आप और भगवान् वे-के-वे ही रहते हैं । आपका और भगवान्का साथ है । शरीरका और संसारका साथ है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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