(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप अपने स्वरूपमें स्थित रहोगे तो जीत जाओगे और भगवान्पर दृष्टि रखोगे तो जीत जाओगे । परन्तु शरीर और संसारपर दृष्टि रखोगे तो हार जाओगे । जिनका मन समतामें स्थित हो गया, वे संसारको जीत गये‒‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः’ (गीता ५ । १९) । आप अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ तो समता आ जायगी और भगवान्की शरण ले लो तो समता आ जायगी ।
जो सामग्री मिली है, उसके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचाओ । सामग्री नहीं मिली तो मौज करो, आनन्द करो ! भगवान्ने जो दिया है, उसमें सन्तोष करो । ‘भगवान् जो करते हैं, ठीक करते हैं ।’ उसमें गलती नहीं होती । इसलिये क्या दुःखी और क्या सुखी हों ! हमें तो भगवान्को याद रखना है उनका नाम लेना है, बस । आज दिनतक आप देखते आये हैं कि संसार हरदम बदलता रहता है तो अब नयी बात क्या हो गयी, बताओ ? थोड़ा-सा अपने अनुभवका आदर करो तो निहाल हो जाओगे । गीताकी एक टीका है‒‘परमार्थप्रपा ।’ उसमें लिखा है कि मनुष्य अपने जीवनका खयाल करे तो संसारसे स्वतः वैराग्य हो जाय । आपने अपने जीवनमें कितनी ऊँची-नीची बातें देखी हैं, ठीक-बेठीक देखा है ! वही अब भी देख लो । यह तो ऐसे ही होता रहेगा । यह सब तो आने-जानेवाला है और हम रहनेवाले हैं । अब क्या राजी हों और क्या नाराज ही ।
पहाड़ दूरसे ही अच्छा दीखता है, नजदीकसे देखो तो कोरा पत्थर-ही-पत्थर है ! ऐसे ही संसारको आप नजदीकसे देखोगे, तब इसकी असलियतका पता लगेगा कि यहाँ रहनेवाला कुछ भी नहीं है । आपके यहाँ लड़का भी जन्मता है और लड़की भी जन्मती है । लड़केके जन्मपर तो आप राजी होते हैं और लड़कीके जन्मपर नाराज होते हैं । ठाकुरजीने लड़का दिया है तो उसका भी पालन करो और लड़की दी है तो उसका भी पालन करो । भगवान्ने कन्या दी है तो अच्छी तरहसे कन्यादान करेंगे, विवाह करेंगे, जिससे किसीका वंश बढ़ेगा‒ऐसे उत्साहसे उसका पालन करो । परन्तु आप लड़केके जन्मपर राजी और लड़कीके जन्मपर बेराजी होते हैं । सासूजीसे पूछो कि माँजी, क्या हुआ है ? वह कहेगी कि ‘भाटो (पत्थर) आयो है भाटो !’ उन माँजीसे पूछो कि जब आप जन्मी थीं, तब हीरा आया था क्या ? लडकीको पराया धन कहते हैं । लड़का-लड़की आपसमें लड़ें तो लड़केसे कहते हैं कि बहनसे क्यों लड़ता है ? यह तो अपने घर चली जायगी ! इसी प्रकार सज्जनो ! प्रकृतिका जितना कार्य (संसार) है,वह सब लड़की है और लड़की तो अपने घर जायगी ही, यहाँ रहेगी नहीं । अतः क्यों मोह करते हो ? यहाँ कुछ भी नहीं रहेगा । न सम्पत्ति रहेगी, न विपत्ति रहेगी । न अनुकूलता रहेगी, न प्रतिकूलता रहेगी । फिर इसमें क्यों राग और द्वेष करें ?
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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