प्रत्येक मनुष्यको शास्त्रके विधानके अनुसार कार्य करना चाहिये । भगवान्, सन्त-महात्मा और शास्त्र‒ये तीनों निष्पक्ष हैं, समतावाले हैं, प्राणिमात्रके सुहद् हैं और सबका हित चाहते हैं; अतः इनकी बात कभी टालनी नहीं चाहिये । ये हमारेसे कुछ भी नहीं चाहते, प्रत्युत केवल हमारा हित करते हैं । गोस्वामीजी कहते हैं‒
हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं ।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥
(मानस ७ । ४७ । ३)
एक भगवान् और एक भगवान्के भक्त‒ये दोनोंनिस्वार्थभावसे सबका हित करनेवाले हैं । भगवान्में तो यह बात स्वाभाविक है और वही स्वभाव भक्तोंमें भी उतर आता है । अतः हमें इनकी बात माननी चाहिये ।
स्त्रियोंके लिये पति ही गुरु माना गया है; अतः उनको स्वतन्त्र गुरु बनानेकी जरूरत नहीं है । गुरुके विषयमें आया है कि यदि गुरु अभिमानी है, अहंकार रखता है, शरीरको बड़ा मानता है कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक नहीं रखता, खराब रास्ते चल पड़ा है तो ऐसे गुरुका परित्याग कर देना चाहिये‒‘परित्यागो विधीयते ।’ अगर वह भजन-स्मरण,सत्संग करनेमें भगवान्के सम्मुख होनेमें बाधा देता हो तो उसकी बात नहीं माननी चाहिये । कारण कि वह तो इस जन्मका गुरु है, पर आध्यात्मिक उन्नति सदाकी उन्नति है ।गुरु, पति, माता-पिता आदि तो इस जन्मके हैं, पर भगवान् हैं, तत्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष हैं, धर्म है‒ये सब नित्य हैं । इसमें एक मार्मिक बात बताता हूँ, आप ध्यान दें ।
पति आदि बड़ोंका कहना कहाँ नहीं मानना चाहिये कि जहाँ उनका अहित होता हो । जिससे पति, माँ-बाप आदिका अहित होता हो, उस आज्ञा-पालनसे क्या लाभ ?जैसे, पति सत्संग जानेमें रुकावट देता है, जाने नहीं देता तो उसकी बात नहीं माननी चाहिये । जिस भाई या बहनकी सत्संगमें जानेकी जोरदार इच्छा है, जो केवल पारमार्थिक लाभके लिये ही सत्संगमें जाना चाहता है, जिसके भाव और आचरण बहुत ठीक शुद्ध हैं, उसको यदि गुरुजन सत्संगमें जानेके लिये मना करते हैं और वह सत्संगमें नहीं जाता तो उसको कोई पाप नहीं लगेगा, पर मना करनेवालोंको पाप लग जायगा । इसलिये उनके भलेके लिये उनकी बात नहीं माननी चाहिये कि वे कहीं पापी न बन जायँ, उनको कहीं नरक न हो जाय ! तात्पर्य है कि जो भगवत्सम्बन्धी बातोंके लिये, आत्मोद्धारकी बातोंके लिये मना करते हैं, उनकी बातको नहीं मानना चाहिये । खूब निधड़क होकर सत्संगमें जाना चाहिये और साफ कह देना चाहिये कि मैं तो सत्संगमें जाऊँगा । परन्तु बहनो ! इतनी बात जरूर हो कि उद्दण्डता न हो, उच्छृंखलता न हो, मनमाना आचरण न हो ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
|