(गत ब्लॉगसे आगेका)
महाभारतमें साफ आया है‒
द्वयक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् ।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥
(महा॰ शान्ति॰ १३ । ४)
‘दो अक्षरोंका ‘मम’ (यह मेरा है) मृत्यु है और तीन अक्षरोंका ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है) अमृत, सनातन ब्रह्म है ।’
‒यह वेदव्यासजी महाराजकी वाणी है, जो सबसे बड़े महापुरुष हुए हैं ! ग्रन्थ लिखनेवालोंमें व्यासजीके समान कोई नहीं है ।
ममता छोड़नेके लिये है और आपको ममता छोड़ना आता है । किसको नहीं आता है ममता छोड़ना ? आपके घरपर भिक्षुक आता है और आप उसे रोटी दे देते हो तो आप उस रोटीको अपनी मानते हो क्या ? आप कहेंगे कि दे देते हैं,तब ऐसा होता है । परन्तु जब नहीं देते हैं, तब भी ऐसा होता है; जैसे‒अधिक मासमें बीस-तीस चीजें दान करनी हों तो बहनें-माताएँ पहले ही चीजें मँगाकर घरमें रख लेती हैं, पर उनमें आपकी ममता होती है क्या ? छोरा उन चीजोमेंसे एक गिलास भी उठा लाये तो आप कहते हो कि इसको वापिस रखकर आओ; यह चीज देनेकी है, अपनी नहीं है । इस तरह जो चीज घरमें पड़ी है, उसकी रक्षा भी करते हो और मोल भी लाते हो, सब कुछ करते हो, पर मेरा-पन नहीं करते ।कन्यादान किया, कपड़ा दे दिया, रोटी दे दी और घरमें पड़ी चीजें भी देनी हैं‒इस विचारसे आप अपनापन छोड़ देते हो । ऐसे ही आपको बताऊँ कि एक दिन आपको शरीरसहित सम्पूर्ण वस्तुओंको छोड़ना पड़ेगा । एक दिन सब छूटेगा ही,छोड़े बिना आप रह सकते नहीं । धनको, घरको, शरीरको भी क्या आप सदा साथमें रख सकते हो ? नहीं रख सकते । ऐसी असमर्थ अवस्थामें यदि आप पहलेसे ही उनका त्याग कर दो तो क्या जोर आये ?
अन्तहुँ तोहि तजैंगे पामर, तू न तजै अबही ते ।
आप नहीं छोड़ोगे तो जबर्दस्ती छुड़ाया जायगा और आपको दुःख होगा, सन्ताप होगा । अगर आप छोड़ दो तो अनन्त सुख प्राप्त होगा‒‘स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।’ (भर्तृहरि वैराग्यशतक) इस बातपर आप थोड़ा विचार करो । देखो, कथा सुन ली, कहानी सुन ली तो अब चलो भाई‒यह बात यहाँ नहीं है । मेरी बातें कथा-कहानीकी तरह नहीं हैं । मर्मकी बातें सुनो और अभी-के-अभी निहाल हो जाओ‒ऐसी बात है ! परन्तु यह बात लोगोंको जँचती नहीं । वे यही कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है ! अरे, नहीं हो सकता तो मैं क्यों कहता हूँ ? नहीं हो सके तो आप होनेका विचार कर लो । कठिनता पड़े तो पूछो !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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