(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञातव्य
प्रश्न‒आयुर्वेद और धर्मशास्त्रमें विरोध क्यों है ? जैसे,आयुर्वेद अरिष्ट, आसव, मदिरा, मांस आदिका विधान करता है और धर्मशास्त्र इनका निषेध करता है; ऐसा क्यों ?
उत्तर‒शास्त्र चार प्रकारके हैं‒नीतिशास्त्र, आयुर्वेद-शास्त्र, धर्मशास्त्र और मोक्षशास्त्र । ‘नीतिशास्त्र’ में धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, वैभव आदिको प्राप्त करनेका एवं रखनेका उद्देश्य ही मुख्य है । नीतिशास्त्रमें कूटनीतिका वर्णन भी आता है, जिसमें दूसरोंके साथ छल-कपट, विश्वासघात आदि करनेकी बात भी आती है, जो कि ग्राह्य नहीं है ।‘आयुर्वेदशास्त्र’ में शरीरकी ही मुख्यता है, अतः उसमें वही बात आती है, जिससे शरीर ठीक रहे । वह बात कहीं-कहीं धर्मशास्त्रसे विरुद्ध भी पड़ती है । ‘धर्मशास्त्र’ में सुखभोगकी मुख्यता है; अतः उसमें वही बात आती है, जिससे यहाँ भी सुख हो और परलोकमें भी (स्वर्गादि लोकोंमें) सुख हो ।‘मोक्षशास्त्र’ में जीवके कल्याणकी मुख्यता है; अतः उसमें वही बात आती है, जिससे जीवका कल्याण (उद्धार) हो जाय । मोक्षशास्त्रमें धर्मविरुद्ध बात नहीं आती । उसमें सकामभावका भी वर्णन आता है, पर उसकी उसमें महिमा नहीं कही गयी है, प्रत्युत निन्दा ही की गयी है । कारण कि साधकमें जबतक सकामभाव रहता है, तबतक परमात्मप्राप्तिमें देरी लगती ही है । इहलोक और परलोकके सुखकी कामनाका त्याग करनेपर धर्मशास्त्र भी मोक्षमें सहायक हो जाता है ।
आयुर्वेदमें शरीरकी ही मुख्यता रहती है । अतः किसी भी तरहसे शरीर स्वस्थ, नीरोग रहे‒इसके लिये आयुर्वेदमें जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयोंके तथा मांस, मदिरा, आसव आदिके सेवनका विधान आता है । धर्मशास्त्रमें सुखभोगकी मुख्यता रहती है; अतः उसमें भी स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये किये जानेवाले अश्वमेध आदि यज्ञोंमें पशुबलिका, हिंसाका वर्णन आता है । वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विधि-विधानसे की हुई (वैदिकी) हिंसाको हिंसा नहीं माना जाता । हिंसा न माननेपर भी हिंसाका पाप तो लगता ही है* । इसके सिवाय मांसका सेवन करते-करते मनुष्यका स्वभाव बिगड़ जाता है । फिर उसमें परलोककी प्रधानता न रहकर स्थूलशरीरकी प्रधानता हो जाती है और वह शास्त्रीय विधानके बिना भी मांसका सेवन करने लग जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे
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* शतक्रतु इन्द्र (सौ यज्ञ करके इन्द्र बननेवाला) भी दुःखी होता है, उसपर भी आफत आती है । उसके मनमें भी ईर्ष्या, भय, अशान्ति आदि होते हैं कि मेरा पद कोई छीन न ले आदि । यह वैदिकी हिंसाके पापका ही फल है ।
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