(गत ब्लॉगसे आगेका)
आयुर्वेदमें हिंसाकी सीमा नहीं होती; क्योंकि उसमें स्थूलशरीरको ठीक रखनेकी मुख्यता है । अतः उसमें परलोकके बिगड़नेकी परवाह नहीं होती । धर्मशास्त्रमें सीमित हिंसा होती है । जिससे परलोक बिगड़ जाय, ऐसी हिंसा नहीं होती । परंतु धर्मशास्त्रमें मनुष्यके कल्याण- (मोक्ष-) की परवाह नहीं होती । तात्पर्य है कि आयुर्वेद और धर्मशास्त्र‒दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं । जबतक अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व रहता है, तबतक मनुष्य पापसे, हिंसासे बच ही नहीं सकता । वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरोंकी भी । परन्तु जिसमें सकामभाव नहीं है, उसके द्वारा हिंसा नहीं होती । अगर उसके द्वारा हिंसा हो भी जाय तो भी उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि पाप कामना- (राग- ) में ही है क्रियामें नहीं ।
लोगोंकी प्रायः ऐसी धारणा बन गयी है कि औषधरूपमें मांस आदि अशुद्ध चीज खाना बुरा नहीं है । परन्तु ऐसा माननेवाले वे ही लोग हैं, जिनका केवल शरीरको ठीक रखनेका, सुख-आरामका ही लक्ष्य है; जो धर्मकी अथवा अपने कल्याणकी परवाह नहीं करते । औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण करनेसे हिंसा और अपवित्रता तो आ ही जाती है । अतः औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण नहीं करना चाहिये ।
प्रश्न‒अगर शरीर रहेगा तो मनुष्य साधन-भजन करेगा; अतः अभक्ष्य-भक्षण करनेसे अगर शरीर बच जाय तो क्या हानि है ?
उत्तर‒अभक्ष्य-भक्षण करनेसे शरीर बच जाय, मौत टल जाय‒यह कोई नियम नहीं है । अगर आयु शेष होगी तो शरीर बच जायगा और आयु शेष नहीं होगी तो शरीर नहीं बचेगा; क्योंकि शरीरका बचना अथवा न बचना प्रारब्धके अधीन है, वर्तमानके कर्मोंके अधीन नहीं । अभक्ष्य-भक्षणसे शरीर बच नहीं सकता, केवल शरीरकी किंचित पुष्टि हो सकती है, पर अभक्ष्य-भक्षणसे जो पाप होगा, उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा ।
मनुष्य साधन-भजनका तो केवल बहाना बनाता है,वास्तवमें तो शरीरमें राग-आसक्ति रहनेसे ही वह अशुद्ध दवाइयोंका सेवन करता है । जिसका शरीरमें राग नहीं है,जिसका उद्देश्य अपना कल्याण करना है, वह प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीरके लिये अशुद्ध चीजोंका सेवन करके पाप क्यों करेगा ?
प्रश्न‒आजकल कई लोग जीवरहित अण्डा खानेमें दोष नहीं मानते; यह कहाँतक उचित है ?
उत्तर‒जीवरहित होनेपर भी वह साग-सब्जीकी तरह शुद्ध नहीं है, प्रत्युत महान् अशुद्ध है; क्योंकि वह अण्डा महान् अपवित्र रज (रक्त) और मांससे ही बनता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे
|