(गत ब्लॉगमें आगेका)
बीकानेरकी ही बात है । एक लड़का माँकी आज्ञाका पालन करता था । वह रोज माँको सत्संगमें पहुँचाता और सत्संग उठता तो आकर माँको ले जाता । एक दिन माँने उससे कहा कि तू भी दो-तीन दिन सत्संग सुन ले, बैठ जा । वह सत्संग सुनने लगा । अब वह कहता है कि सत्संग छूटता ही नहीं मेरेसे । चखे बिना क्या पता चले कि लड्डूमें कितना स्वाद है ! अतः जिन्होंने सत्संग किया ही नहीं, वे बेचारे क्या जानें ? ‘मायाको मजूर बन्दो कहा जाने बन्दगी’ दूसरे सत्संग करें‒यह बात भी उनसे सही नहीं जाती ! दूसरा साधुको भोजन करा दे‒यह भी उनसे सहा नहीं जाता और कहते हैं‒‘मुफ्तमें खावे मोडा ।’ चोरी हम करते नहीं, डाका हम डालते नहीं । लोग खिलायें तब खाते हैं । लोगोंको मना करो तुम ! परन्तु उनसे सहा नहीं जाता । सत्संग सुहाता नहीं,भजन-ध्यानकी बात सुहाती नहीं ।
मजाल क्या है जीव की जो राम नाम ले,
पाप देवे थापकी तो मूँडो फोर दे ।
न तो खुद सत्संग करते हैं, न दूसरोंको करने देते हैं‒‘खेतका अड़वा, न खावे न खाने दे ।’ पर आप पक्के रहें । आप भगवान्में लग जायँ तो पाप, ताप सब नष्ट हो जायँगे ।जैसे सूर्यसे दुनियाका अन्धकार मिट जाता है, ऐसे ही सत्संगसे हृदयका अन्धकार मिट जाता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
अमृत-बिन्दु
धर्मके अनुसार खुद चले‒इसके समान धर्मका प्रचार कोई नहीं है ।
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‘आशीर्वाद दीजिये’‒ऐसा न कहकर आशीर्वाद पानेका पात्र बनना चाहिये ।
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वर्तमानका ही सुधार करना है । वर्तमान सुधरनेसे भूत और भविष्य दोनों सुधर जाते हैं ।
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दुःखी व्यक्ति ही दूसरेको दुःख देता है । पराधीन व्यक्ति ही दूसरेको अपने अधीन करता है ।
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वस्तुका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत उसके सदुपयोगका महत्त्व है ।
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जो खुद भले नहीं हैं, जिनका स्वभाव भलाई करनेका नहीं है, उन्हींको ऐसा दीखता है कि आज भलाईका जमाना नहीं है !
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जबतक मनुष्यको दूसरेकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता दीखती है, तबतक वह साधक तो हो सकता है, पर सिद्ध नहीं हो सकता ।
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परमात्मा ‘प्राप्त’ हैं और संसार ‘प्रतीति’ है । जो मिलता है, पर दीखता नहीं, उसको ‘प्राप्त’ कहते हैं और जो दीखता है, पर मिलता नहीं, उसको ‘प्रतीति’ कहते हैं ।
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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