(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्संग दुर्लभतासे मिलता है । सत्संगकी बड़ी विचित्र महिमा है ! हनुमान्जी लंकामें जाने लगे तो उनको लंकिनीने पकड़ लिया और कहा कि मेरा निरादर करके कहाँ जाते हो ? लंकामें जो चोर होता है, वह मेरा आहार होता है ! हनुमान्जीने जोरसे एक मुक्का मारा । लंकिनीके मुँहसे खून बहने लगा । ऐसी दशा होनेपर वह बोली‒
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
(मानस ५ । ४)
लवमात्र सत्संगके समान दूसरा कोई सुख नहीं है । स्वर्ग और मुक्तिका सुख भी उसकी तुलना नहीं कर सकता । इतनी महिमा है भगवत्प्रेमीके संगकी । हनुमान्जीका मुक्का लगा‒यह सत्संग हुआ । लंकिनीने जान लिया कि राक्षसोंका काल आ गया, अब सब राक्षस खत्म हो जायेंगे‒
बिकल होसि तैं कपि कें मारे ।
तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
(मानस ५ । ४ । ४)
मुक्का खाकर वह खुशी मनाती है और आशीर्वाद देती है कि भगवान्को याद रखकर लंकामें जाओ, तुम्हारा सब काम सिद्ध होगा । कारण कि भगवान्के प्यारे भक्तका संग हो गया, स्पर्श हो गया ! इसलिये सत्संगकी विचित्र महिमा है । कोई कह नहीं सकता ।
सन्तोंकी बड़ी विचित्र-विचित्र महिमा आती है । हमने सुना है कि नाभाजीकी आँखें नहीं थीं । भगवान्के भक्त थे । वे सन्तोंके यहाँ चले गये । जूतियोंमें, रज्जीमें पड़े रहते और जो कुछ मिलता, पा लेते तथा मस्त रहते । सन्तोंकी, गुरुकी आज्ञाका पालन करनेमें बड़े तत्पर रहते । उस आज्ञा-पालन और भजनसे उनको बड़े-बड़े अनुभव हो गये । तब गुरुजीने आज्ञा दी कि तुम भक्तोंके चरित्र लिखो । नाभाजीने कहा कि महाराज ! भगवान्के चरित्र तो मैं लिख सकता हूँ, पर भक्तोंके चरित्र मैं कैसे लिखूँगा ? तो गुरुजीने कहा कि भक्त आकर तुम्हें दर्शन देंगे और अपना चरित्र बतायेंगे । तब उन्होंने ‘भक्तमाल’ लिखी । भीतरके नेत्र खुल गये । भक्तोंका अद्भुत वर्णन किया । अतः सत्संगसे, सन्तोंकी कृपासे क्या नहीं हो सकता ?
यह कलियुग और इसमें भगवान्का नाम मिल गया,सत्संग मिल गया तो मानो सोनेमें सुगन्ध है ! ऐसे सुन्दर अवसरको जाने मत दो । कष्ट उठाकर भी किसी तरह लोगोंको सत्संगमें लाओ । बड़ी-बूढ़ी माताओंको सत्संगमें लाओ । उनको हाथ पकड़कर अपने साथ लाओ और सत्संगमें बैठाओ । वे नहीं बैठ सकें तो एक तरफ बिछौना बिछाकर उसपर लिटा दो कि लेटकर सुनती रहो अथवा कुर्सी रखकर उसपर बैठा दो । इस प्रकार उनको सत्संग सुननेका मौका दो । भाइयोंसे भी यही कहना है कि जो बड़े-बूढ़े हों, उनको लाओ । एक जगह बैठा दो अथवा जहाँ छाया हो, वहाँ लिटा दो । सत्संग सुनाकर उनको घरपर पहुँचा दो । आपको बड़ा पुण्य होगा । भोजन देनेका भी पुण्य होता है तो क्या सत्संगके लिये अवसर देनेका पुण्य नहीं होगा ? जो सत्संगको नहीं मानते, उनको भी पैरोंमें पड़कर सत्संगमें लाओ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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