(गत ब्लॉगसे आगेका)
मीराँबाई भजन करती हुई डरती नहीं हैं । इतनी आफत होनेपर भी भजन करती हैं‒
राणाजी म्हें तो गोबिन्द का गुण गास्याँ ।
हरिमंदिर में निरत करास्याँ, धूँधरिया घमकास्याँ ॥
स्त्री-जाति, बड़े घरानेमें पैदा हुई, परदेमें रही, परदेमें ब्याही गयी‒वह मीराँबाई निधड़क होकर अकेले ही मेड़तेसे द्वारिका चली गयी ! डर है ही नहीं मनमें । ये जो पुरुष बैठे हैं, इनको घरसे निकाल दिया जाय तो इनको मुश्किल हो जाय, भीतरमें खलबली मच जाय कि कहाँ रहेंगे ? क्या खायेंगे ? परन्तु स्त्री-जाति होनेपर भी मीराँबाईको भगवान्का भरोसा है‒
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई ॥
जो सब संसारका पालन-पोषण करनेवाला है, वह क्या भक्तोंकी उपेक्षा कर सकता है ? ‘यो हि विश्वम्भरो देवः स भक्तान् किमुपेक्षते ।’ अतः किसीसे डरनेकी, चिन्ता करनेकी जरूरत नहीं है । सत्संग आदिके लिये कोई मना करे तो साफ कह देना चाहिये कि आपकी यह बात मैं नहीं मानूँगी; क्योंकि इसमें आपका अहित है और आपका अहित मेरेको अभीष्ट नहीं है । सत्संग, भजन, ध्यान निःशंक होकर,निधड़क होकर करो । हाँ, दिखावटी भजन नहीं करना है,दम्भ नहीं करना है ।
भीतरमें और बात तथा बाहरमें और बात‒यह नहीं होना चाहिये‒‘ऊपर मीठी बात, कतरनी काँखमें । आग बुझी मत जान, दबी है राखमें ।’ ऊपरसे मीठी बात करना और भीतरमें कपट रखना‒यह बहुत खराब है !
क्यूँ खोदे तू खाडो रे ।
तू तो जाणे दूजो पड़सी, आसी थारे आडो रे ॥
इसलिये बड़ी सावधानीसे जीवन पवित्र बनाओ,सुन्दर बनाओ । भगवान्के सम्मुख हो जाओ, फिर डरनेकी जरूरत नहीं । हम त्रिलोकीनाथ परमात्माके सम्मुख हैं, फिर डर किस बातका ? परन्तु उद्दण्डता, उच्छंखलता नहीं करनी है, कटु बर्ताव नहीं करना है । बड़े प्रेमका, आदरका बर्ताव करना है । कारण कि प्रेमका बर्ताव करनेसे आपका भाव शुद्ध, निर्मल होगा, जिसका भगवान्पर, सन्त-महात्माओंपर असर पड़ेगा । वे आपके पक्षमें होंगे ।
सत्संगका मौका बहुत कम मिलता है‒
तात मिलै पुनि मात मिलै सुत भात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज-बाजि मिलै सब साज मिलै मनवांछित पाई ॥
लोक मिलै सुरलोक मिलै बिधिलोक मिलै बैकुंठहु जाई ।
‘सुन्दर’ और मिलै सब ही सुख संत समागम दुर्लभ भाई ॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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