पुरुष और प्रकृति‒ये दो हैं । इनमेंसे पुरुषमें कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तनरहित नहीं होती । जब यह पुरुष प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है,तब प्रकृतिकी क्रिया पुरुषका ‘कर्म’ बन जाती है; क्योंकि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे तादात्म्य हो जाता है ।तादात्म्य होनेसे जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त हैं, उनमें ममता होती है और उस ममताके कारण अप्राप्त वस्तुओंकी कामना होती है । इस प्रकार जबतक कामना, ममता और तादात्म्य रहता है तबतक जो कुछ परिवर्तनरूप क्रिया होती है, उसका नाम‘कर्म’ है ।
तादात्म्यके टूटनेपर वही कर्म पुरुषके लिये ‘अकर्म’ हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नहीं रहती‒यह ‘कर्ममें अकर्म’ है । अकर्म-अवस्थामें अर्थात् स्वरूपका अनुभव होनेपर उस महापुरुषके शरीरसे जो क्रिया होती रहती है, वह ‘अकर्ममें कर्म’ है* । तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूपका अनुभव न होनेपर भी वास्तवमें सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके कार्य शरीरमें होती हैं; परन्तु प्रकृति या शरीरसे अपनी पृथक्ताका अनुभव न होनेसे वे क्रियाएँ ‘कर्म’ बन जाती हैं† ।
कर्म तीन तरहके होते हैं‒क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध । अभी वर्तमानमें जो कर्म किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’कर्म कहलाते हैं‡ । वर्तमानसे पहले इस जन्ममें किये हुए अथवा पहलेके अनेक मनुष्यजन्मोंमें किये हुए जो कर्म संगृहीत हैं, वे ‘संचित’ कर्म कहलाते हैं । संचितमेंसे जो कर्म फल देनेके लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं अर्थात् जन्म, आयु और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें परिणत होनेके लिये सामने आ गये हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म कहलाते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
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* कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
(गीता ४ । १८)
† प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(गीता ३ । २७)
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
(गीता १३ । २९)
‡ जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं वे सब केवल मनुष्यजन्ममें ही बनते हैं (गीता ४ । १२; १५ । २), पशु-पक्षी आदि योनियोंमें नहीं; क्योंकि वे योनियाँ केवल कर्मफल-भोगके लिये ही मिलती हैं ।
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