(गत ब्लॉगसे आगेका)
क्रियमाण कर्म दो तरहके होते हैं‒शुभ और अशुभ । जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधानसे किये जाते हैं, वे शुभ कर्म कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदिको लेकर जो शास्त्र-निषिद्ध कर्म किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं ।
शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्मका एक तो फल-अंश बनता है और एक संस्कार-अंश । ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं ।
क्रियमाण कर्मके फल-अंशके दो भेद हैं‒दृष्ट और अदृष्ट । इनमेंसे दृष्टके भी दो भेद होते हैं‒तात्कालिक और कालान्तरिक जैसे, भोजन करते हुए जो रस आता है, सुख होता है, प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है‒यह दृष्टका‘तात्कालिक’ फल है और भोजनके परिणाममें आयु, बल,आरोग्य आदिका बढ़ना‒यह दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल है । ऐसे ही जिसका अधिक मिर्च खानेका स्वभाव है, वह जब अधिक मिर्चवाले पदार्थ खाता है, तब उसको प्रसन्नता होती है, सुख होता है और मिर्चकी तीक्षाताके कारण मुँहमें, जीभमें जलन होती है, आँखोंसे और नाकसे पानी निकलता है, सिरसे पसीना निकलता है‒यह दृष्टका ‘तात्कालिक’ फल है और कुपथ्यके कारण परिणाममें पेटमें जलन और रोग, दुःख आदिका होना‒यह दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल है ।
इसी प्रकार अदृष्टके भी दो भेद होते हैं‒लौकिक और पारलौकिक । जीते-जी ही फल मिल जाय‒इस भावसे यज्ञ,दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्र-जप आदि शुभ कर्मोंको विधि-विधानसे किया जाय और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूलकी प्राप्ति होना और रोग, निर्धनता आदि प्रतिकूलकी निवृत्ति होना‒यह अदृष्टका ‘लौकिक’ फल है* और मरनेके बाद स्वर्ग आदिकी प्राप्ति हो जाय‒इस भावसे यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक जो यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म किये जायँ तो मरनेके बाद स्वर्ग आदि लोकोंकी प्राप्ति होना‒यह अदृष्टका ‘पारलौकिक’ फल है । ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्यकी हत्या करने आदि अशुभ कर्मोंका फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना‒यह अदृष्टका ‘लौकिक’फल है और पापोंके कारण मरनेके बाद नरकोंमें जाना और पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि बनना‒यह अदृष्टका‘पारलौकिक’ फल है ।
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
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* यहाँ दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल और अदृष्टका ‘लौकिक’ फल‒दोनों फल एक समान ही दीखते हैं, फिर भी दोनोंमें अन्तर है । जो ‘कालान्तरिक’ फल है, वह सीधे मिलता है, प्रारब्ध बनकर नहीं; परन्तु जो ‘लौकिक’ फल है, वह प्रारब्ध बनकर ही मिलता है ।
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