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कर्मोंमें मनुष्यके प्रारब्धकी प्रधानता है या पुरुषार्थकी ? अथवा प्रारब्ध बलवान् है या पुरुषार्थ ?‒इस विषयमें बहुत-सी शंकाएँ हुआ करती हैं । उनके समाधानके लिये पहले यह समझ लेना जरूरी है कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ क्या है ?
मनुष्यमें चार तरहकी चाहना हुआ करती है‒एक धनकी, दूसरी धर्मकी, तीसरी भोगकी और चौथी मुक्तिकी । प्रचलित भाषामें इन्हीं चारोंको अर्थ, धर्म, काम और मोक्षके नामसे कहा जाता है‒
(१) अर्थ‒धनको ‘अर्थ’ कहते हैं । वह धन दो तरहका होता है‒स्थावर और जंगम । सोना, चाँदी, रुपये, जमीन,जायदाद, मकान आदि स्थावर हैं और गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट,भेड़ बकरी आदि जंगम हैं ।
(२) धर्म‒सकाम अथवा निष्कामभावसे जो यज्ञ,तप, दान, व्रत, तीर्थ आदि किये जाते हैं, उसको ‘धर्म’ कहते हैं ।
(३) काम‒सांसारिक सुख-भोगको ‘काम’ कहते हैं । वह सुखभोग आठ तरहका होता है‒शब्द, स्पर्श, रूप, रस,गन्ध, मान, बड़ाई और आराम ।
(क) शब्द‒शब्द दो तरहका होता है‒वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक । व्याकरण, कोश, साहित्य, उपन्यास, गल्प,कहानी आदि ‘वर्णात्मक’* शब्द हैं । खाल, तार और फूँकके तीन बाजे और तालका आधा बाजा‒ये साढ़े तीन प्रकारके बाजे ‘ध्वन्यात्मक’ शब्दको प्रकट करनेवाले हैं† । इन वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दोंको सुननेसे जो सुख मिलता है, वह शब्दका सुख है ।
(ख) स्पर्श‒स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके साथ मिलनेसे तथा ठण्डा, गरम, कोमल आदिसे अर्थात् उनका त्वचाके साथ संयोग होनेसे जो सुख होता है, वह स्पर्शका सुख है ।
(ग) रूप‒नेत्रोंसे खेल, तमाशा, सिनेमा, बाजीगरी,वन, पहाड़ सरोवर, मकान आदिकी सुन्दरताको देखकर जो सुख होता है, वह रूपका सुख है ।
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* वर्णात्मक शब्दमें भी दस रस होते हैं‒शृंगार, हास्य, करुण,रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त और वात्सल्य । ये दसों ही रस चित्त द्रवित होनेसे होते हैं । इन दसों रसोंका उपयोग भगवान्के लिये किया जाय तो ये सभी रस कल्याण करनेवाले हो जाते हैं और इनसे सुख भोगा जाय तो ये सभी रस पतन करनेवाले हो जाते हैं ।
† ढोल, ढोलकी, तबला, पखावज, मृदंग आदि ‘खाल’ के; सितार,सारंगी, मोरचंग आदि ‘तार’ के; मशक, पेटी (हारमोनियम), बाँसुरी,पूँगी आदि ‘फूँक’ के और झाँझ, मंजीरा, करताल आदि ‘ताल’ के बाजे हैं ।
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