(गत ब्लॉगसे आगेका)
(२) कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो आगे आनेवाली नदीमें बाढ़के प्रवाहके कारण एक धनका टोकरा बहकर आया और उस सज्जनने उसे निकाल लिया । ऐसे ही कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो उसपर वृक्षकी एक टहनी गिर पडी और उसको चोट लग गयी । इन दोनोंमें धनका मिलना और चोट लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मोंसे बने हुए प्रारब्धके फल हैं; परन्तु धनका टोकरा मिलना और वृक्षकी टहनी गिरना‒यह प्रवृत्ति अनिच्छा-(दैवेच्छा-) पूर्वक हुई है ।
(३) किसी धनी व्यक्तिने किसी बच्चेको गोद ले लिया अर्थात् उसको पुत्र-रूपमें स्वीकार कर लिया, जिससे उसका सब धन उस बच्चेको मिल गया । ऐसे ही चोरोंने किसीका सब धन लूट लिया । इन दोनोंमें बच्चेको धन मिलना और चोरीमें धनका चला जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मोंसे बने हुए प्रारब्धके फल हैं; परन्तु गोदमें जाना और चोरी होना‒यह प्रवृत्ति परेच्छापूर्वक हुई है ।
यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिये कि कर्मोंका फल ‘कर्म’ नहीं होता, प्रत्युत ‘परिस्थिति’ होती है अर्थात् प्रारब्ध कर्मोंका फल परिस्थितिरूपसे सामने आता है । अगर नये (क्रियमाण) कर्मको प्रारब्धका फल मान लिया जाय तो फिर ‘ऐसा करो, ऐसा मत करो’‒यह शास्त्रोंका, गुरुजनोंका विधि-निषेध निरर्थक हो जायगा । दूसरी बात, पहले जैसे कर्म किये थे, उन्हींके अनुसार जन्म होगा और उन्हींके अनुसार कर्म होंगे तो वे कर्म फिर आगे नये कर्म पैदा कर देंगे,जिससे यह कर्म-परम्परा चलती ही रहेगी अर्थात् इसका कभी अन्त ही नहीं आयेगा ।
प्रारब्ध कर्मसे मिलनेवाले फलके दो भेद हैं‒प्राप्त फल और अप्राप्त फल । अभी प्राणियोंके सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही है, वह ‘प्राप्त’ फल है और इसी जन्ममें जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्यमें आनेवाली है वह ‘अप्राप्त’ फल है ।
क्रियमाण कर्मोंका जो फल-अंश संचितमें जमा रहता है, वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थितिके रूपमें मनुष्यके सामने आता है । अतः जबतक संचित कर्म रहते हैं, तबतक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थितिके रूपमें परिणत होता ही रहता है । यह परिस्थिति मनुष्यको सुखी-दुःखी होनेके लिये बाध्य नहीं करती । सुखी-दुःखी होनेमें तो परिवर्तनशील परिस्थितिके साथ सम्बन्ध जोड़ना ही मुख्य कारण है । परिस्थितिके साथ सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़नेमें यह मनुष्य सर्वथा स्वाधीन है, पराधीन नहीं है । जो परिवर्तनशील परिस्थितिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता है । परन्तु जो परिस्थितिके साथ सम्बन्ध नहीं मानता, वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता; अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्थामें होती है,जो कि उसका स्वरूप है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
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