(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनु और शतरूपा तप कर रहे थे तो ब्रह्माण्डके ब्रह्मा,विष्णु और महेश कई बार उनके पास आये, पर उन्होंने अपना तप नहीं छोड़ा । अन्तमें जब परब्रह्म परमात्मा उनके पास आये, तब उन्होंने अपना तप छोड़ा और उनसे वरदान माँगा ।
वास्तवमें भगवान्का सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप-दोनों एक ही हैं । मनु-शतरूपा भगवान्के सच्चिदानन्दमयरूप (महाविष्णु) को देखना चाहते थे,इसलिये भगवान् उनके सामने उसी रूपसे आये, अन्यथा ब्रह्माण्डके विष्णु तथा महाविष्णुमें कोई भेद नहीं है । अवतारके समय भी भगवान् सबको सच्चिदानन्दमयरूपसे अर्थात् भगवत्स्वरूपसे नहीं दीखते‒‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’ (गीता ७ । २५) । अर्जुनको भगवान् जैसे दीखते थे, वैसे दुर्योधनको नहीं दीखते थे । परशुरामको भगवान् राम पहले राजकुमारके रूपमें दीखते थे, पीछे भगवत्स्वरूपसे दीखने लगे ! तात्पर्य है कि भगवान् एक होते हुए भी दूसरेके भावके अनुसार अलग-अलग रूपसे प्रकट होते हैं ।
प्रश्न‒भक्तोंके सामने भगवान् किस रूपसे आते हैं ?
उत्तर‒सामान्य भक्त (आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि) के सामने भगवान् देवरूपसे आते हैं और विशेष भक्ति- (अनन्यभाव-) वाले भक्तके सामने भगवान् सच्चिदानन्दमय (महाविष्णु आदि) रूपसे आते हैं । परंतु भक्त उन दोनों रूपोंको अलग-अलग नहीं जान सकता । यदि भगवान् जना दें, तभी वह जान सकता है ।
वास्तवमें देखा जाय तो दोनों रूपोंमें तत्त्वसे कोई भेद नहीं है, केवल अधिकारमें भेद है । भगवान् देवरूपमें सीमित शक्तिसे प्रकट होते हैं और सच्चिदानन्दमयरूपमें असीम शक्तिसे ।
प्रश्न‒यज्ञ आदि करनेसे देवताओंकी पुष्टि होती है और यज्ञ आदि न करनेसे वे क्षीण हो जाते हैं‒इसका तात्पर्य क्या है ?
उत्तर‒जैसे वृक्ष, लता आदिमें स्वाभाविक ही फल-फूल लगते हैं; परन्तु यदि उनको खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फल-फूल विशेषतासे लगते हैं । ऐसे ही शास्त्रविधिके अनुसार देवताओंके लिये यज्ञादि अनुष्ठान करनेसे देवताओंको खुराक मिलती है, जिससे वे पुष्ट होते हैं और उनको बल मिलता है, सुख मिलता है । परंतु यज्ञ आदि न करनेसे उनको विशेष बल, शक्ति नहीं मिलती ।
यज्ञ आदि न करनेसे मर्त्यदेवताओंकी शक्ति तो क्षीण होती ही है, आजानदेवताओमें जो कार्य करनेकी क्षमता होती है, उसमें भी कमी आ जाती है । उस कमीके कारण ही संसारमें अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि उपद्रव होने लगते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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