वास्तवमें अभिमान और ममताका त्याग कठिन है । परंतु एक बात
आपको बतायी जाती है, भाई-बहन अपने-अपने घरोंमें उसका अनुष्ठान करें, उसके अनुसार
अपना जीवन बनायें, तो बहुत सुगमतासे अभिमान और ममताका त्याग हो सकता है । घरोंमें प्रायः दो बातोंको लेकर लड़ाई होती है । काम-धन्धा तो
तुम करो और चीज-वस्तु मैं लूँ । आराम, आदर,
सत्कार−सब कुछ मेरेको मिले ।
काम-धन्धा और खर्च तुम करो । इन बातोंको लेकर खटपट चलती है । अगर इनको उलट
दिया जाय अर्थात् काम-धन्धा मैं करूँ, आराम आप करो । आदर-सत्कार,
मान-प्रशंसा−ये लेनेकी नहीं देनेकी हैं, तो दूसरोंका आदर करें, मान दें, आराम दें,
सत्कार करें, उनकी आज्ञा पालन करें, उनको सुख पहुँचायें, ऐसे आपसमें किया जाय तो
प्रेम बढ़ता है ।
मनुष्यका
स्वभाव है कि वह अपने मनकी बात पूरी करना चाहता है और अपने मनकी होनेसे राजी होता
है । धनकी, मानकी, बड़ाईकी, जीनेकी कामना होती है । परंतु इन कामनाओंमें मूल कामना
यह है कि मेरे मनकी बात हो जाय । यह बात बढ़िया नहीं है । अपने
मनकी बातका आग्रह छोड़कर औरोंके मनकी बात करता चला जाय तो निहाल हो जाय । केवल दो
बातोंका ख्याल करना है कि उनकी बात न्याययुक्त हो और अपनी सामर्थ्यमें हो । इसका
एक सरल उपाय है । यह निश्चय कर लें कि हमें संसारसे लेना
नहीं है−संसारकी सेवा करनी है । क्यों करनी है ? क्योंकि पहले लिया है इसलिये अब
देना है । संसारको देना है, संसारसे लेना नहीं है ।
एक मार्मिक बात बतायें, आप ध्यान देकर
सुनें । मानव-शरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिए मिला है । संसारमें रहनेकी एक रीति
है । उस रीतिको हम धारण करें तो परमात्माकी प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो जाय । हरेक
काम करनेकी एक विद्या होती है, यदि उसके अनुसार काम करते हैं तो वह काम पूरा हो
जाता है । संसारमें रहनेकी भी एक विद्या है तो उस विद्याको
भी जानना चाहिये । उस विद्याको काममें लें तो बड़ी सुगमतासे संसारमें रहेंगे और
संसारको पार कर जायेंगे । वह विद्या क्या है ? जिसने जिसके साथ जो सम्बन्ध मान रखा है, उसके अनुसार
बड़ी तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करे और उससे अपनी कोई भी इच्छा न रखे, कामना न
रखे, वासना न रखे । अपने लेना नहीं है, देना है । यह शरीर है, संसारसे सुख
लेनेके लिए नहीं मिला है ।
एहि तन कर फल बिषय न भाई ।
शरीरका फल
तो सेवा करना है । माताके लिए पुत्र बनो तो सपूत बनो । माँकी सेवा करनी है । माताके
पास जो रुपये हैं, गहने-कपड़े हैं, तो यही कहो कि माँ, जो तुम्हारे पास है उसे
हमारी बहिनको दे दो । छोटे भाई या बड़े भाईको दे दो । मेरे ऊपर तो आप एक ही कृपा
करो कि सेवा मेरेसे ले लो । माँ-बापकी सेवासे आदमी उऋण
नहीं हो सकता । उनका जितना भी ऋण हमारे ऊपर है, उसे हम चुका नहीं सकते । ऋणको अदा नहीं कर सकते । कोई उपाय नहीं है ।
तो क्या है ? सेवा करके उनकी प्रसन्नता ले लो । प्रसन्नता लेनेसे वह ऋण माफ हो
जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
−‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’पुस्तकसे |