अब लोगोंने मुर्देको श्मशानमें ले जाकर जला दिया और पीछे जब
अपने-अपने घर लौटने लगे तो भगवान् शंकरने सोचा—‘क्या बात है ? ये आदमी तो वे-के-वे ही हैं;
परंतु नाम कोई लेता ही नहीं !’ उनके मनमें आया कि उस मुर्देमें ही करामात थी, उसके
कारण ही ये सब लोग ‘राम’ नाम ले रहे थे । वह मुर्दा कितना पवित्र होगा ! भगवान्
शंकरने श्मशानमें जाकर देखा, वह तो जलकर राख हो गया । इसलिये उन्होंने उस मुर्देकी
भस्म अपने शरीरमें लगा ली और वहाँ ही रहने लगे । अतः राखमें ‘रा’ और मुर्देमें ‘म’ इस तरह ‘राम’ हो गया । ‘राम’ नाम उन्हें बहुत प्यारा लगता है । ‘राम’ नाम सुनकर वे
खुश हो जाते हैं, प्रसन्न हो जाते हैं । इसलिये मुर्देकी राख अपने अंगोंमें
लगाते हैं । किसी कविने कहा है—
रुचिर
रकार बिन तज दी सती सी नार,
किनी नाहीं रति रद्र पायके कलेश को ।
गिरिजा
भई है पुनि तप ते अर्पणा तबे,
कीनी अर्धंगा प्यारी लगी गिरिजेश को ॥
विष्नु
पदी गंगा तज धूर्जटी धरि न सीस,
भागीरथी भई तब धारी है अशेष को ।
बार
बार करत रकार और मकार ध्वनि,
पूरण है प्यार राम-नाम पे महेश को ॥
—सबसे श्रेष्ठ सती है, पर उनके नाममें ‘स’ और ‘त’ है, पर ‘र’
और ‘म’ तो है ही नहीं । इस कारण शंकरने सतीको छोड़ दिया । वे सतीका त्याग कर देनेसे
अकेले दुःख पा रहे हैं । उनका मन भी अकेले नहीं लगा । इस कारण काक-भुशुण्डिजीके
यहाँ हँस बनकर गये और उनसे ‘रामचरित’ की कथा सुनी । ऐसी बात आती है कि एक बार
सतीने सीताजीका रूप धारण कर लिया था, इस कारण उन्होंने फिर सतीसे प्रेम नहीं किया
और साथमें रहते हुए भी उन्हें अपने सामने आसन दिया, सदाकी तरह बायें भागमें आसन
नहीं दिया । फिर सतीने जब देह-त्याग कर दिया तो वे उसके वियोगमें व्याकुल हो गये ।
सतीने पर्वतराज हिमाचलके यहाँ ही जन्म लिया, और कोई देवता
नहीं थे क्या ? परंतु उनकी पुत्री होनेसे सतीको गिरिजा, पार्वती नाम मिला और तभी
इन नामोंमें ‘र’ कार आया । इतनेपर भी भगवान् शंकर मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं,
क्या पता ? इसलिये तपस्या करने लगी ।
पुनि परिहरे सुखानेउ
परना ।
उमहि नामु तब भयऊ अपरना ॥
(मानस,
बालकाण्ड, दोहा
७४ । ७)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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