(गत ब्लॉगसे आगेका)
ब्रह्म और जीवका अर्थ क्या है ? ‘ममैवांशः’
(गीता १५ । ७) यह जीव परमात्माका साक्षात् अंश है और यह परमात्मा (ब्रह्म)
को प्राप्त हो जाता है । ‘इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम
साधर्म्यमागताः ।’ (गीता १४ । २) मेरी साधर्म्यताको प्राप्त हो जाते हैं
अर्थात् जैसे भगवान् हैं, ऐसे ही भक्त हो जाते हैं । इन दोनोंकी सहधर्मता हो
जाती है । तुलसीदासजीने भी कहा है‒
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
(मानस, किष्किन्धाकाण्ड, दोहा १२ । २)
स्वारथ मीत सकल जग माहीं ।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ४७ । ६)
प्रायः सब लोग स्वार्थसे ही प्रेम करनेवाले हैं; परन्तु ‘हेतु रहित जग जुग उपकारी’‒दो बिना स्वार्थके हित
करनेवाले हैं । ‘तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी’‒एक
आप और दूसरे आपके प्यारे भक्त । ये बिना स्वार्थ, बिना मतलबके दुनियामात्रका हित
करनेवाले हैं । गीतामें भी भगवान् कहते हैं‒मेरेको सब प्राणियोंका सुहृद्
जाननेसे शान्ति मिलती है (५ । २९) । ‘सुहृदः
सर्वदेहिनाम्’‒भगवान्के जो भक्त होते हैं, वे प्राणी-मात्रके सुहृद् होते
हैं । दुनियाका हित कैसे हो‒ऐसा भगवान्का भाव निरन्तर
रहता है । इस तरह भगवान्के प्यारे भक्तोंके हृदयमें भी दुनियामात्रके हितका भाव
निवास करता है ।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई ।
मंद करत जो करइ भलाई ॥
(मानस, सुन्दरकाण्ड, दोहा ४१ । ७)
अपने साथ बुरा बर्ताव करनेवालोंका भी संत भला ही करते हैं ।
इसलिये नीतिमें भी आया है‒‘निष्पीडितोऽपि मधुरं वमति
इक्षुदण्डः’‒ऊखको कोल्हूमें पेरा जाय तो भी वह मीठा-ही-मीठा रस सबको देता
है । ऐसा नहीं कि इतना तंग करता है तो कड़वा बन जाऊँ ! वह मीठा ही निकलता है;
क्योंकि उसमें भरा हुआ रस मीठा ही है । ऐसे ही सन्त-महात्माओंको
दुःख दें तो भी वे भलाई ही करते हैं; क्योंकि उनमें भलाई-ही-भलाई भरी हुई है,
यह विलक्षण बात है कि भगवान् स्वाभाविक ही सबका हित करनेवाले है । भगवान्का भजन
करनेसे, मन लगानेसे, ध्यान करनेसे, भगवान्का नाम लेनेसे भजन करनेवालोंमें भी
भगवान्के गुण आ जाते हैं अर्थात् वे विशेष प्रभावशाली हो जाते हैं । नाम-जपसे
उनमें भी विलक्षणता आ जाती है ।
नर नारायन सरिस सुभ्राता
।
जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा २० । ५)
ये
दोंनो अक्षर नर-नारायणके समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत्का पालन और विशेषरूपसे
भक्तोंकी रक्षा करनेवाले हैं । जैसे नर और नारायण दोनों तपस्या करते हैं और साथमें
ही रहते हैं । लोगोंके सुखके लिये, आनन्दके लिये और वे सुख-शान्तिसे रहें, इसी
बातको लेकर बदरिकाश्रम (उत्तराखण्ड) में तपस्या करते हैं । इसी तरही नाम महाराज भी
सबकी रक्षा करते हैं । ये दोनों अक्षर भाई-भाई है ।
(अपूर्ण)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
|