।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वास्तवमें परमात्मा सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ हैं । सगुण-निर्गुण आदि तो उनके विशेषण (नाम) हैं । जो परमात्मा गुणोंसे कभी नहीं बँधते, जिनका गुणोंपर पूरा आधिपत्य होता है, वे ही परमात्मा निर्गुण होते हैं । अगर परमात्मा गुणोंसे बँधे हुए और गुणोंके अधीन होंगे तो वे कभी निर्गुण नहीं हो सकते । निर्गुण तो वे ही हो सकते हैं, जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं और जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं, ऐसे परमात्मामें ही सम्पूर्ण गुण रह सकते हैं । जो अपनेको गुणोंसे बँधा हुआ मानता है, वह जीव भी परमात्मप्राप्ति होनेपर जब गुणातीत कहा जाता है‒‘गुणातीतः स उच्यते’ (गीता १४ । २५), तो फिर परमात्मा गुणोंसे आबद्ध कैसे हो सकते हैं ? वे तो नित्य ही गुणातीत हैं ।

जब परमात्मा सगुण-साकार रूपसे प्रकट होते हैं, तब उनके करण भी प्राकृत (मायिक) नहीं होते, प्रत्युत चिन्मय होते हैं‒

जन्म कर्म च मे दिव्यम्   (गीता ४ । ९)

चिदानंदमय     देह    तुम्हारी ।
बिगत बिकार जान अधिकारी ॥
                                (मानस २ । १२७ । ५)

भगवान्‌का साकार रूप जीवोंके शरीरोंकी तरह हाड़-मांसका (जड) नहीं होता । जीवोंके शरीर तो पाप-पुण्यमय, नाशवान्, रोगी, विकारी, पाञ्चभौतिक और रज-वीर्यसे पैदा होनेवाले होते हैं, पर भगवान्‌का शरीर पाप-पुण्यसे रहित, अविनाशी, रोगरहित, विकार-रहित, चिन्मय तथा स्वतः प्रकट होनेवाला होता है । जीवोंके शरीरोंकी अपेक्षा देवताओंके शरीर भी दिव्य होते हैं, पर भगवान्‌का शरीर देवताओंके शरीरोंसे भी अत्यन्त विलक्षण, परम दिव्य होता है, जिसको देखनेके लिये देवता भी लालायित रहते हैं‒

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ।
                                                                  (गीता ११ । ५२)

भगवान्‌के शब्द, स्पर्श, रूप,रस और गन्ध‒सब-के-सब चिन्मय हैं । भगवान्‌का एक नाम ‘आत्मारामगणाकर्षी’ भी है । भगवान्‌के चरणकमलोंकी गन्धसे नित्य-निरन्तर परमात्मतत्त्वमें स्थित रहनेवाले सनकादिकोंके चित्तमें भी हलचल पैदा हो गयी थी‒

                           तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-
                               किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
                           अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां
                               संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥
                                                             (श्रीमद्भा ३ । १५ । ४३)

‘प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवान्‌के चरणकमलके परागसे मिली हुई तुलसी-मञ्जरीकी वायुने उनके नासिका-छिद्रोंमें प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे