(गत ब्लॉगसे आगेका)
तात्पर्य है कि सगुण होते हुए भी परमात्मा
वास्तवमें निर्गुण ही हैं[1] । इसलिये सगुणकी उपासना करनेवाला साधक भी तीनों गुणोंका
अतिक्रमण कर जाता है‒
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय
कल्पते ॥
(गीता १४ । २६)
‘जो मनुष्य अव्यभिचारी
भक्तियोगके द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका
पात्र हो जाता है ।’
सगुणकी उपासना करनेवाला निर्गुण ब्रह्मकी
प्राप्तिका पात्र कैसे होता है ? इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं‒
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥
(गीता
१४ । २७)
‘ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वतधर्म और ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा
(आश्रय) मैं ही हूँ ।’
उपर्युक्त श्लोकमें ‘ब्रह्म तथा अविनाशी
अमृतकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह निर्गुण-निराकारकी बात है [ भगवान्ने ‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ (गीता ५ । १०) और ‘मया ततमिदं
सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) पदोंमें भी अपनेको (सगुण-साकारको) ब्रह्म तथा अव्यक्तमूर्ति
कहा है । ] ‘शाश्वतधर्मकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह सगुण-साकारकी बात है [ अर्जुनने भी
भगवान्को ‘शाश्वतधर्मगोप्ता’ (गीता ११ । १८) कहा है । ] ‘ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह सगुण-निराकारकी
बात है [ ध्यानयोगके प्रकरणमें इसी ऐकान्तिक सुखको ‘आत्यन्तिक सुख’ कहा गया है (६ । २१) । ]
इसी प्रकार
ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें भी ‘त्वमक्षरं परमं
वेदितव्यम्’ पदोंसे
निर्गुण-निराकारकी बात आयी है; ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ पदोंसे
सगुण-निराकारकी बात आयी है; और ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ पदोंसे सगुण-साकारकी बात आयी है ।
वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।
तामसं द्यूतसदनं
मन्निकेतं तु निर्गुणम् ॥
(११ । २५ । २५)
‘वनमें रहना सात्त्विक
है, गाँवमें रहना राजस है, जुआघरमें रहना तामस है और मन्दिरमें
रहना निर्गुण है ।’
सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी ।
तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा ॥
(११ । २५ । २७)
‘आत्मज्ञानमें श्रद्धा
सात्त्विक है, कर्ममें श्रद्धा राजस
है, अधर्ममें श्रद्धा तामस है और मेरी सेवामें
श्रद्धा निर्गुण है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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