(गत ब्लॉगसे आगेका)
ग्यारहवें अध्यायके ही चौवनवें श्लोकमें
भगवान् कहते हैं‒
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवविधोऽर्जुन
।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन
प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
‘हे शत्रुतापन अर्जुन
! इस प्रकार मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें, देखनेमें और प्रवेश (प्राप्त) करनेमें
शक्य हूँ ।’
‒यहाँ भी भगवान्ने सगुणकी उपासनासे
निर्गुणकी प्राप्ति बतायी है । जैसे, ‘ज्ञातुम्’ पद निर्गुण-निराकारके लिये, ‘द्रष्टुम्’ पद सगुण-साकारके लिये और ‘प्रवेष्टुम्’ पद सगुण-निराकार तथा निर्गुण-निराकार दोनोंके लिये आया
है । तात्पर्य है कि सगुणकी उपासना करणसापेक्ष दीखते हुए भी परिणाममें करणनिरपेक्ष
ही है ।
करणसापेक्ष साधन
चित्तवृत्तिकी पाँच अवस्थाएँ हैं‒मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । इनमें मूढ़ और क्षिप्त
वृत्तिवाला मनुष्य ध्यानयोगका अधिकारी नहीं होता । जिसका चित्त कभी परमात्मामें लगता
है कभी नहीं लगता‒ऐसा विक्षिप्त वृत्तिवाला मनुष्य ही ध्यानयोगका अधिकारी होता है ।
विक्षिप्त
वृत्तिवाला साधक अपने चित्तको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेका अभ्यास करता है[1] । जब उसका
चित्त परमात्मामें लग जाता है तब ध्यान-अवस्था होती है । ध्यानावस्थामें ध्याता, ध्यान और
ध्येय‒यह त्रिपुटी रहती है । ध्यान करते-करते जब ध्याता और ध्यान नहीं रहते, प्रत्युत
एक ध्येय रह जाता है, तब चित्तवृत्ति एकाग्र हो
जाती है[2] । चित्तवृत्ति
एकाग्र होनेपर संप्रज्ञात (सविकल्प) समाधि होती
है[3] । ध्येयमें
तीन बातें रहती हैं‒ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका
सम्बन्ध । सप्रंज्ञात-समाधिका दीर्घकालतक अभ्यास करनेपर जब नामकी स्मृति न रहकर केवल
नामी (ध्येय) रह जाता है, तब चित्तवृत्ति निरुद्ध हो
जाती है । चित्तवृत्ति निरुद्ध होनेपर असंप्रज्ञात (निर्विकल्प) समाधि होती है ।
योगिनो यतचित्तस्य
युञ्जतो योगमात्मनः ॥
(गीता ६ । १९)
‘जैसे स्पन्दनरहित वायुके
स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले
योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है ।’
[3] स्थूलशरीरसे क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे चिन्तन और कारणशरीरसे समाधि होती है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीर ‘करण’ हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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