।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७१, शनिवार
अक्षयनवमी
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

ग्यारहवें अध्यायके ही चौवनवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च  तत्त्वेन  प्रवेष्टुं   च   परन्तप ॥

‘हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें, देखनेमें और प्रवेश (प्राप्त) करनेमें शक्य हूँ ।’

‒यहाँ भी भगवान्‌ने सगुणकी उपासनासे निर्गुणकी प्राप्ति बतायी है । जैसे, ‘ज्ञातुम्’ पद निर्गुण-निराकारके लिये, ‘द्रष्टुम्’ पद सगुण-साकारके लिये और ‘प्रवेष्टुम्’ पद सगुण-निराकार तथा निर्गुण-निराकार दोनोंके लिये आया है । तात्पर्य है कि सगुणकी उपासना करणसापेक्ष दीखते हुए भी परिणाममें करणनिरपेक्ष ही है ।

करणसापेक्ष साधन

चित्तवृत्तिकी पाँच अवस्थाएँ हैं‒मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । इनमें मूढ़ और क्षिप्त वृत्तिवाला मनुष्य ध्यानयोगका अधिकारी नहीं होता । जिसका चित्त कभी परमात्मामें लगता है कभी नहीं लगता‒ऐसा विक्षिप्त वृत्तिवाला मनुष्य ही ध्यानयोगका अधिकारी होता है ।

विक्षिप्त वृत्तिवाला साधक अपने चित्तको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेका अभ्यास करता है[1] । जब उसका चित्त परमात्मामें लग जाता है तब ध्यान-अवस्था होती है । ध्यानावस्थामें ध्याता, ध्यान और ध्येय‒यह त्रिपुटी रहती है । ध्यान करते-करते जब ध्याता और ध्यान नहीं रहते, प्रत्युत एक ध्येय रह जाता है, तब चित्तवृत्ति एकाग्र हो जाती है[2] । चित्तवृत्ति एकाग्र होनेपर संप्रज्ञात (सविकल्प) समाधि होती है[3] । ध्येयमें तीन बातें रहती हैं‒ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका सम्बन्ध । सप्रंज्ञात-समाधिका दीर्घकालतक अभ्यास करनेपर जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है । चित्तवृत्ति निरुद्ध होनेपर असंप्रज्ञात (निर्विकल्प) समाधि होती है ।


[1] यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
      ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
                                                                               (गीता ६ । २६)

[2] यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
       योगिनो यतचित्तस्य   युञ्जतो   योगमात्मनः ॥
                                                                                    (गीता ६ । १९)

‘जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है ।’

[3] स्थूलशरीरसे क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे चिन्तन और कारणशरीरसे समाधि होती है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीर ‘करण’ हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे