(गत ब्लॉगसे आगेका)
असंप्रज्ञात-समाधि दो तरहकी होती है‒सबीज
और निर्बीज । जब संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, तब सबीज समाधि होती है । सबीज समाधिमें अहम् (मैं-पन) के साथ सम्बन्ध रहता है ।
अहम्के सम्बन्धसे दो अवस्थाएँ होती हैं‒समाधि और व्युत्थान । सूक्ष्म वासनाके कारण
इस सबीज समाधिमें अनेक प्रकारकी सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं । ये सिद्धियाँ सांसारिक
दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विघ्न
हैं[1] । जब योगी इन सिद्धियोंमें न फँसकर
इनसे उपराम (वासनारहित) हो जाता है, तब निर्बीज समाधि होती है । निर्बीज समाधिमें अहम्से, कारणशरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और योगी
अपने सहज स्वरूपमें स्थित हो जाता है,[2]
जिससे फिर कभी व्युत्थान नहीं होता । इसको सहज समाधि, सहजावस्था अथवा गुणातीत-अवस्था भी कहते हैं ।
यद्यपि करणसापेक्ष साधनमें करण (क्रिया)
की प्रधानता रहती है तथापि साधकका लक्ष्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेसे परिणाममें
उसका करणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उसको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता
है ।
करणनिरपेक्ष साधन‒
करणनिरपेक्ष
साधन गीताकी एक विलक्षण देन है, जिसमें
मनुष्यमात्रका अधिकार है । इस साधनमें सत्-असत्के विवेककी प्रधानता है । विवेक अनादि
और स्वतःसिद्ध है[3] । यह बुद्धिमें
प्रकाशित होता है, पर बुद्धिका गुण नहीं है ।
यद्यपि सत्-असत्का विवेक सभी साधनोंमें रहता है तथापि करण-निरपेक्ष साधनमें साधक आरम्भसे
ही इस विवेकको महत्त्व देता है, जिससे यह
विवेक स्वयं उसका मार्गदर्शक हो जाता है । विवेकको महत्त्व देनेसे उसमें जडकी दासता
अर्थात् क्रिया और पदार्थका आश्रय नहीं रहता, प्रत्युत
उसकी निरपेक्षता रहती है ।
यत्र चैवात्मनात्मानं
पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
(गीता ६ । २०)
‘योगका सेवन करनेसे जिस
अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको
देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है ।’
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी
उभावपि (१३ । ११)
‘प्रकृति और पुरुष‒दोनोंको
ही तुम अनादि समझो ।’ अतः जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इन दोनोंका भेद (विवेक) भी अनादि है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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