(गत ब्लॉगसे आगेका)
जडके आश्रयसे तत्त्वकी प्राप्ति
अथवा बोध नहीं होता,
प्रत्युत संसारका कार्य
होता है । जडका आश्रय सर्वथा मिटनेपर जडकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती और जडकी स्वतन्त्र
सत्ता न रहनेपर विवेक ही तत्त्वबोधमें परिणत हो जाता है । इस प्रकार करणनिरपेक्ष-साधनमें
विवेक मुख्य है ।
१. सत्-असत्का विवेक
गीताके उपदेशका आरम्भ विवेकसे ही हुआ
है; जैसे‒एक शरीर है और एक शरीरी (शरीरवाला) है । शरीर प्रकृतिका
अंश और शरीरी परमात्माका अंश है । शरीर और शरीरी दोनों ही अशोच्य हैं । तात्पर्य है
कि शरीरीका कभी नाश नहीं होता; अतः उसके लिये शोक करना नहीं बनता और
शरीरका नाश निरन्तर होता है; अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता
। शरीर-शरीरीकी इस भिन्नताको जाननेवाले विवेकी पुरुष किसी भी मृत अथवा जीवित प्राणीके
लिये कभी शोक-चिन्ता नहीं करते । उनकी दृष्टि नाशवान् शरीरकी तरफ न रहकर अविनाशी शरीरीकी
तरफ ही रहती है । वे देखते हैं कि शरीर पहले भी नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे, पर उनमें रहनेवाला शरीरी पहले भी था और बादमें भी रहेगा
। अतः शरीरोंके आने-जानेका उसपर कोई असर नहीं पड़ता । कारण कि जैसे शरीर बालकसे जवान
और जवानसे बूढ़ा हो जाता है, पर स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है (इसीलिये
हम कहते हैं कि जो मैं बचपनमें था, वही मैं आज हूँ), ऐसे ही एक शरीरसे दूसरे शरीरकी प्राप्ति
होनेपर भी स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है । तात्पर्य है कि अवस्थाएँ बदलती हैं, स्वयं नहीं बदलता (२ । ११‒१३) ।
जैसे शरीर नाशवान् और परिवर्तनशील है, ऐसे ही सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थ नाशवान् और परिवर्तनशील
हैं । उन पदार्थोंमें हमारी अनुकूलताकी भावना हो जाती है तो वे सुख देनेवाले हो जाते
हैं और प्रतिकूलताकी भावना हो जाती है तो वे दुःख देनेवाले हो जाते हैं । शरीरादि सम्पूर्ण
प्राकृत पदार्थ आने-जानेवाले, उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । वे
एक क्षण भी स्थिर नहीं रहते । जिस मनुष्यपर इन प्राकृत पदार्थोंके
आने-जानेका किंचिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता, वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता
है (२ । १४-१५) ।
नाशवान्
शरीरादि पदार्थ ‘असत्’ हैं और
अविनाशी शरीरी ‘सत्’ है । असत्की
तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं है । असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह भी वास्तवमें
सत्की सत्तासे ही है । अतः सत् और असत्‒दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुष एक सत्-तत्त्वका
ही अनुभव करते हैं अर्थात् उनकी दृष्टिमें एक सत्- तत्त्वके सिवाय और किसीकी भी स्वतन्त्र
सत्ता नहीं रहती । यह सत्-तत्त्व सम्पूर्ण संसारमें व्यास है । संसारका नाश होनेपर
भी इस सत्-तत्त्वका कभी नाश नहीं होता । परन्तु देखने और जाननेमें आनेवाले जितने शरीर
हैं, वे सब-के-सब
असत् हैं । उनका प्रतिक्षण ही नाश हो रहा है । उनको ‘नाशवान्’ कहते हैं; क्योंकि
नाशके सिवाय उनमें और कुछ है ही नहीं । जैसे शरीरोंका विनाशीपना नित्य है, ऐसे ही
उनमें रहनेवाले शरीरीका अविनाशीपना नित्य है (२ । १६‒१८) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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