(गत ब्लॉगसे आगेका)
जीवन-निर्वाहके लिये हमें अन्न, जल, वस्त्र आदिकी आवश्यकता है, धनकी आवश्यकता नहीं । धन मिले चाहे न मिले, पर वस्तु मिलनी चाहिये । हमारे पास केवल धन हो और अल, जल, वस्त्र आदि न हों तो हम जी नहीं सकेंगे
। परन्तु हमारे पास केवल अन्न, जल, वस्त्र आदि हों और धन न हो तो हम अच्छी तरह जी जायेंगे । यहाँ शंका हो सकती है
कि धन पासमें न हो तो वस्तु कैसे मिलेगी ? इसका समाधान है कि धन पासमें न होनेपर भी प्रारब्धके
अनुसार अथवा भगवान्के विधानसे वस्तु मिल सकती है[1] । जैसे, कहीं परिश्रम (नौकरी) करनेसे बदलेमें वस्तु मिल जाती है; कोई भेंट, पुरस्कार आदि देता है तो वस्तु मिल जाती है; खेती करनेसे अनाज मिल जाता है; वस्तुके बदलेमें वस्तु मिल जाती है; जिनके पास धन (मुद्रा) नहीं है, उन साधुओं आदिको भी जीवन-निर्वाहकी वस्तुएँ मिल जाती हैं, आदि । तात्पर्य है कि जीवन-निर्वाहके लिये धनकी अपेक्षा
नहीं है । वस्तु धनसे ही मिलती है‒यह धनकी अपेक्षा है । वस्तु धनसे भी मिलती है और
धनके बिना भी मिलती है‒यह धनकी निरपेक्षता है । इसी तरह परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें
करणकी अपेक्षा नहीं है अर्थात् वह करणनिरपेक्ष है[2] ।
करणकी आवश्यकता कहाँतक है
?
जैसे जूतीकी
आवश्यकता तभीतक है, जबतक मार्गपर काँटे-कंकड़ हैं, ऐसे ही
साधनमें करणकी आवश्यकता तभीतक है, जबतक विवेककी
कमी है अर्थात् विवेक पूर्णतया जाग्रत् नहीं हुआ है । विवेक
जाग्रत् न होनेका कारण है‒अपने विवेकको महत्त्व न देना । भोग और संग्रहकी आसक्तिके
कारण ही मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देता[3] ।
[2] यहाँ करणनिरपेक्ष साधनको समझनेके लिये धनका दृष्टान्त दिया गया है । वास्तवमें
दृष्टान्त कभी पूरा नहीं घटता, प्रत्युत आंशिकरूपसे ही घटता है । अगर
वह पूरी तरह घट जाय तो वह दृष्टान्त नहीं रहेगा, प्रत्युत दार्ष्टान्त हो जायगा । अतः दृष्टान्त तत्त्वको समझनेके लिये केवल संकेत है ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
(गीता २ । ४४)
‘भोग तथा ऐश्वर्य (संग्रह)
का वर्णन करनेवाली वाणीसे जिनका अन्तःकरण भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें
अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं
होती ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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