।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७१, सोमवार
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

करणनिरपेक्ष साधनमें करणको काममें लेना है करणका त्याग करनेके लिये, न कि साथमें रखनेके लिये । अगर करणमें महत्त्वबुद्धि होगी तो उसका त्याग नहीं हो सकेगा । करणमें महत्त्वबुद्धि होनेका तात्पर्य है‒करणके द्वारा ही तत्त्वकी प्राप्ति मानना ।

करण साधन है, साध्य नहीं । साध्य तो करणरहित परमात्मतत्त्व ही है । अतः करणका सदुपयोग तो करना है, पर उसकी अपेक्षा नहीं रखनी है । अपेक्षा रखनेसे करणकी पराधीनता रहेगी । जडकी पराधीनता, दासता रहनेसे चिन्मय तत्त्व नहीं मिलेगा । करणकी अपेक्षा न रखनेसे जडकी दासता नहीं रहेगी और साधक स्वतन्त्रतापूर्वक स्वतन्त्रता (मोक्ष) को प्राप्त कर लेगा ।

संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करणनिरपेक्ष होनेसे ही होता है । जबतक करणकी अपेक्षा रहेगी, तबतक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा; क्योंकि करण भी संसार ही है ।

करणको काममें लेना दोष नहीं है, प्रत्युत उसमें महत्त्वबुद्धि रखना, उसका आश्रय लेना, उसके अधीन होना, उसकी अपेक्षा रखना दोष है । अतः बुद्धिको काममें लेना है, उसका सदुपयोग करना है, पर उसका आश्रय नहीं लेना है । साधकको विचार करना चाहिये कि क्या मैं बुद्धि हूँ ? अगर मैं बुद्धि नहीं हूँ तो मैं बुद्धिका हूँ अथवा बुद्धि मेरी है ? अगर बुद्धि मेरी है तो इससे सिद्ध होता है कि मैं बुद्धिसे अलग हूँ; मेरे लिये बुद्धिकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत बुद्धिको मेरी जरूरत है । अतः बुद्धिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित होना है । जबतक बुद्धि साथमें रहेगी, तबतक राग-द्वेषका अभाव नहीं होगा और अहम् (परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व) बना रहेगा ।

जैसे आँख दीखनेमें छोटी-सी होते हुए भी इतनी सूक्ष्म और व्यापक है कि भूमण्डल, तारा, नक्षत्र आदि सब देखनेके बाद भी जगह खाली रहती है । ऐसा नहीं होता कि बस, अब जगह खाली नहीं रही, अब और नहीं देख सकते । जो वस्तु आँखसे नहीं दीखती, वह मन-बुद्धिसे दीखती है अर्थात् जाननेमें आती है । बुद्धि इतनी सूक्ष्म और व्यापक है कि समस्त वेद-पुराणादि शास्त्र, अनेक विद्याएँ, अनेक भाषाएँ और लिपियाँ चारों युगों और चौदह भुवनोंका ज्ञान तथा ब्रह्माकी आयु भी बुद्धिके जाननेमें आती है । फिर भी ऐसा नहीं होता कि बस, अब जगह खाली नहीं रही, अब और नहीं जान सकते । बुद्धिमें ऐसी विलक्षणता होनेपर भी बुद्धि दृश्य ही है, द्रष्टा नहीं; क्योंकि बुद्धि करण (अन्तःकरण) है । करण प्रकृतिका कार्य होता है । करणके द्वारा हम प्रकृतिको तो जान ही नहीं सकते, प्रकृतिके कार्यको भी पूरा नहीं जान सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको जान ही कैसे सकते हैं ?
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे