(गत ब्लॉगसे आगेका)
करणनिरपेक्ष साधनमें करणको
काममें लेना है करणका त्याग करनेके लिये, न कि साथमें रखनेके लिये । अगर करणमें
महत्त्वबुद्धि होगी तो उसका त्याग नहीं हो सकेगा । करणमें महत्त्वबुद्धि होनेका तात्पर्य
है‒करणके द्वारा ही तत्त्वकी प्राप्ति मानना ।
करण साधन है, साध्य नहीं । साध्य तो करणरहित परमात्मतत्त्व ही है ।
अतः करणका सदुपयोग तो करना है, पर उसकी अपेक्षा नहीं रखनी है । अपेक्षा
रखनेसे करणकी पराधीनता रहेगी । जडकी पराधीनता, दासता रहनेसे चिन्मय तत्त्व नहीं मिलेगा
। करणकी
अपेक्षा न रखनेसे जडकी दासता नहीं रहेगी और साधक स्वतन्त्रतापूर्वक स्वतन्त्रता (मोक्ष)
को प्राप्त कर लेगा ।
संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करणनिरपेक्ष
होनेसे ही होता है । जबतक करणकी अपेक्षा रहेगी, तबतक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा; क्योंकि करण भी संसार ही है ।
करणको काममें लेना दोष नहीं
है, प्रत्युत उसमें महत्त्वबुद्धि रखना, उसका आश्रय लेना, उसके अधीन होना, उसकी अपेक्षा रखना दोष है । अतः बुद्धिको काममें लेना है, उसका सदुपयोग करना है, पर उसका आश्रय नहीं लेना है । साधकको विचार करना चाहिये कि क्या मैं बुद्धि हूँ
? अगर मैं बुद्धि नहीं हूँ तो मैं बुद्धिका हूँ अथवा बुद्धि
मेरी है ? अगर बुद्धि मेरी है तो इससे सिद्ध होता है कि मैं बुद्धिसे
अलग हूँ; मेरे लिये बुद्धिकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत बुद्धिको मेरी जरूरत है । अतः बुद्धिको छोड़कर
अपने स्वरूपमें स्थित होना है । जबतक बुद्धि साथमें रहेगी, तबतक राग-द्वेषका अभाव नहीं होगा और
अहम् (परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व) बना रहेगा ।
जैसे आँख
दीखनेमें छोटी-सी होते हुए भी इतनी सूक्ष्म और व्यापक है कि भूमण्डल, तारा, नक्षत्र
आदि सब देखनेके बाद भी जगह खाली रहती है । ऐसा नहीं होता कि बस, अब जगह
खाली नहीं रही, अब और नहीं देख सकते । जो
वस्तु आँखसे नहीं दीखती, वह मन-बुद्धिसे दीखती है अर्थात्
जाननेमें आती है । बुद्धि इतनी सूक्ष्म और व्यापक है कि समस्त वेद-पुराणादि शास्त्र, अनेक विद्याएँ, अनेक भाषाएँ
और लिपियाँ चारों युगों और चौदह भुवनोंका ज्ञान तथा ब्रह्माकी आयु भी बुद्धिके जाननेमें
आती है । फिर भी ऐसा नहीं होता कि बस, अब जगह
खाली नहीं रही, अब और नहीं जान सकते । बुद्धिमें
ऐसी विलक्षणता होनेपर भी बुद्धि दृश्य ही है, द्रष्टा
नहीं; क्योंकि
बुद्धि करण (अन्तःकरण) है । करण प्रकृतिका कार्य होता है । करणके द्वारा हम प्रकृतिको
तो जान ही नहीं सकते, प्रकृतिके कार्यको भी पूरा
नहीं जान सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको
जान ही कैसे सकते हैं ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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