(गत ब्लॉगसे आगेका)
अगर हम ब्रह्मको बुद्धिसे जाननेकी चेष्टा
करते हैं तो हमने मानो ब्रह्मको बुद्धिका विषय बना लिया अर्थात् ब्रह्म तो दृश्य (एकदेशीय)
हो गया और बुद्धि द्रष्टा (व्यापक) हो गयी । बुद्धिमें वही
विषय आता है,
जो बुद्धिसे छोटा होता है
। अतः
जबतक हम ब्रह्मको बुद्धिके ज्ञानसे देखेंगे, बुद्धिसे उसपर विचार करेंगे, तबतक हमारी स्थिति जडमें ही रहेगी ।
कारण कि सांसारिक विषयोंसे लेकर बुद्धितक सब प्रकृतिका कार्य होनेसे दृश्य (जड) ही
है । इसीलिये कहा है‒
रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं
दृक् तु मानसम् ।
दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव तु
न दृश्यते ॥
(वाक्यसुधा १)
‘सर्वप्रथम नेत्र द्रष्टा
हैं और रूप दृश्य है, फिर मन द्रष्टा है और नेत्रादि इन्द्रियाँ दृश्य हैं, फिर बुद्धि द्रष्टा है और मन दृश्य
है । अन्तमें बुद्धिकी वृत्तियोंका भी जो द्रष्टा है, वह साक्षी (स्वयंप्रकाश आत्मा) किसीका
भी दृश्य नहीं है ।’
तात्पर्य है कि शब्दादि विषयोंमें होनेवाले
परिवर्तनको इन्द्रियाँ जानती हैं; अतः विषय दृश्य हैं और इन्द्रियाँ द्रष्टा
हैं । इन्द्रियोंमें होनेवाले परिवर्तनको मन जानता है; अतः इन्द्रियाँ दृश्य हैं और मन द्रष्टा है । मनमें होनेवाले
संकल्प-विकल्प, चंचलता-स्थिरता आदि विकारोंको बुद्धि
जानती है; अतः मन दृश्य है और बुद्धि द्रष्टा है । बुद्धिमें होनेवाले
विकारों (समझना, न समझना अथवा कम समझना आदि) को स्वयं
जानता है; अतः बुद्धि दृश्य है और स्वयं (स्वरूप) द्रष्टा है । स्वयं
अपरिवर्तनशील तथा निर्विकार है; अतः वह किसीका भी दृश्य नहीं है, प्रत्युत सबका द्रष्टा है[1]‒
१. विज्ञातारमरे केन विजानीयात्
(बृहदा॰ २ । ४ । १४)
‘सबके विज्ञाताको किसके द्वारा जाना
जाय ?’
२. नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा (बृहदा॰ ३ । ७ । २३)
‘इससे भिन्न कोई द्रष्टा
नहीं है ।’
३. स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता
(श्वेताश्वतर॰ ३ । ११)
‘वह सम्पूर्ण ज्ञेयको जानता
है, पर उसका ज्ञाता कोई नहीं है
।’
[1] जैसे धनके सम्बन्धसे ‘धनवान्’ कहलाता है; किन्तु धनका सम्बन्ध न रहनेपर धनवान्
(व्यक्ति) तो रहता है पर धनवान्, नाम नहीं रहता । ऐसे ही दृश्यके सम्बन्धसे
‘द्रष्टा’ कहलाता है; किन्तु दृश्यका सम्बन्ध न रहनेपर द्रष्टा तो रहता है, पर ‘द्रष्टा’ संज्ञा नहीं रहती । तात्पर्य है कि
एक ही चिन्मय तत्त्व (समझनेके लिये) दृश्यके सम्बन्धसे द्रष्टा, साक्ष्यके सम्बन्धसे साक्षी, करणके सम्बन्धसे कर्ता और शरीरके सम्बन्धसे
शरीरी कहा जाता है । वास्तवमें उस तत्त्वका कोई नाम नहीं है । वह केवल अनुभवरूप है
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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