।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन पूर्णिमा, वि.सं.२०७१, बुधवार
महर्षि वाल्मीकि-जयन्ती, कार्तिक स्नानारम्भ
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

करणरहित (करणनिरपेक्ष) परमात्मतत्त्व

जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, जो क्रियाको उत्पन्न करनेवाला है उसको कारक’ कहते हैं‒‘क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्’ । कारक छः होते हैं‒कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण[1] ये छहों कारक क्रियाकी सिद्धिमें ही काम आते हैं, परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें नहीं । कारण कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति क्रियासाध्य नहीं है । सभी कारक प्रकृतिमें हैं और प्रकृतिके कार्य हैं; परन्तु परमात्मतत्त्व प्रकृतिसे अतीत है । अतः कोई भी कारक परमात्मतत्त्वतक नहीं पहुँच सकता । इसलिये परमात्मतत्त्व करणनिरपेक्ष (करणरहित) है अर्थात् वह कर्तानिरपेक्ष, कर्मनिरपेक्ष, करणनिरपेक्ष, सम्प्रदाननिरपेक्ष, अपादाननिरपेक्ष और अधिकरणनिरपेक्ष है[2]

शंका‒जब परमात्मतत्त्व सभी कारकोंसे निरपेक्ष है तो फिर उसको केवल करणनिरपेक्ष कहनेका क्या तात्पर्य है ?

समाधान‒क्रियाकी सिद्धि करणके व्यापारके बाद तत्काल ही होती है[3] । अतः करण क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त उपकारक होता है‒‘साधकतमं करणम्’ (पाणि १ । ४ । ४२) । जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’इस वाक्यमें बाण’ करण है; क्योंकि बालिके मरनेमें बाण हेतु हुआ । यद्यपि बाणके चलनेमें धनुष, प्रत्यंचा, हाथ आदि कई कारक हेतु हैं, तथापि बालि बाणसे मारा गया, धनुष आदिसे नहीं । अतः परमात्मतत्त्वको करणनिरपेक्ष कहनेका तात्पर्य यह हुआ कि जो क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त उपकारक है, वह करण’ भी जब उसकी प्राप्तिमें हेतु नहीं है तो फिर दूसरे कारक उसकी प्राप्तिमें हेतु हो ही कैसे सकते हैं ? इसलिये करणनिरपेक्ष कहनेसे परमात्मतत्त्व स्वतः कारकनिरपेक्ष सिद्ध हो जाता है; क्योंकि वह कारकोंसे अतीत है ।

कारकोंमें कर्ता’ मुख्य होता है; क्योंकि सब क्रियाएँ कर्ताके ही अधीन होती हैं । अन्य कारक तो क्रियाकी सिद्धिमें सहायकमात्र होते हैं । इसलिये कर्ता स्वतन्त्र होता है‒‘स्वतन्त्रः कर्त्ता’ (पाणि १।४ । ५४) । परमात्मतत्त्व किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है ।


[1] कर्ता कर्म च करणं  च  सम्प्रदानं  तथैव च ।
      अपादानाधिकरणे चेत्याहुः कारकाणि षट् ॥

[2] जो करणरहित होता है, वह करणसापेक्ष तो नहीं हो सकता, पर करणनिरपेक्ष हो सकता है । अतः यहाँ करणसापेक्षके संस्कारवालोंको समझानेके लिये (करणनिरपेक्ष साधनकी दृष्टिसे) परमात्मतत्त्वको ‘करणनिरपेक्ष’ कह दिया गया है । वास्तवमें परमात्मतत्त्व करणरहित’ ही है ।

[3] क्रियायाः फलनिष्पत्तिर्यद्‌व्यापारादनन्तरम् ।
       विवक्ष्यते  यदा  तत्र करणं  तत्तदा  स्मृतम् ॥
                                                (वाक्यपदीय ३ । ७ । ९०)
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे