(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीताने परमात्मतत्त्वमें कर्तापनका
निषेध जगह-जगह और तरह-तरहसे किया है; जैसे‒
१. शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति
न लिप्यते ॥
(१३
। ३१)
‘यह आत्मा शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता
है ।’
२. प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति
तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
(१३ । २१)
‘जो सम्पूर्ण क्रियाओंको सब प्रकारसे
प्रकृतिके द्वारा ही की जाती हुई देखता है अर्थात् प्रकृतिको कर्ता देखता है और स्वरूपको
अकर्ता देखता (अनुभव करता) है, वही यथार्थ देखता है ।’
३. तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु
यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न
स पश्यति दुर्मतिः ॥
(१८ । १६)
‘जो कर्मोंके विषयमें शुद्ध आत्माको
कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं
समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है
।’
४. प्रकृते क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(३ । २७)
‘सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके
गुणोंद्वारा किये जाते हैं अर्थात् गुण कर्ता हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला
अज्ञानी मनुष्य ‘मैं कर्ता हूँ’‒ऐसा मानता है ।’
५. तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति
मत्वा न सज्जते ॥
(३ । २८)
‘हे महाबाहो ! गुणविभाग
और कर्मविभागको तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता ।’
६. नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं
सोऽधिगच्छति ॥
(१४ । १९)
‘जब विवेकी (विचारकुशल) मनुष्य तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता
और अपनेको गुणोंसे पर (सर्वथा निर्लिप्त) अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त
हो जाता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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