(गत ब्लॉगसे आगेका)
७. इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु
वर्तन्ते (५ । ९)
‘सम्पूर्ण इन्द्रियाँ
ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं अर्थात् इन्द्रियाँ कर्ता हैं ।’
८. नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत
तत्त्ववित् ।
(५ । ८)
‘तत्त्वको जाननेवाला
सांख्ययोगी ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा माने अर्थात् अनुभव करे ।’
‒इस प्रकार कहीं प्रकृतिको, कहीं गुणोंको और कहीं इन्द्रियोंको कर्ता कहनेका तात्पर्य
यह है कि परमात्मतत्त्वमें कर्तृत्व नहीं है । कर्तृत्व-भोकृत्व
संसारका स्वरूप है । जब परमात्मतत्त्व कर्ता ही नहीं है तो फिर अन्य कारक वहाँतक
पहुँच ही कैसे सकते हैं ? अतः उसकी प्राप्ति करणके
द्वारा नहीं होती,
प्रत्युत करणके सम्बन्ध-विच्छेदसे
होती है । उपनिषद्में आया है‒
१. न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति
नो मनः
(केन॰ १ । ३)
‘उस ब्रह्मतक न तो नेत्रेन्द्रिय जाती
है, न वाणी जाती है और न मन ही जाता है
।’
१. यन्मनसा न मनुते
येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते
॥
(केन॰ १ । ५)
‘जो मन (अन्तःकरण) से मनन नहीं किया
जाता, प्रत्युत जिससे मन मनन किया हुआ कहा
जाता है, उसीको तू ब्रह्म जान । जिस इसकी लोक
उपासना करता है अर्थात् जिसका ज्ञान अन्तःकरणसे होता है, वह ब्रह्म नहीं है ।’
२. नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं
शक्यो न चक्षुषा ।
(कठ॰ २ । ३ । १२)
‘वह परमात्मतत्त्व न तो वाणीसे, न मनसे और न नेत्रोंसे ही प्राप्त किया
जा सकता है ।’
३. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन
।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनुं
स्वाम् ॥
(कठ॰ १ । २ । २३, मुण्डक॰ ३ । २ । ३)
‘यह आत्मतत्त्व (परमात्मा) न तो प्रवचनसे, न बुद्धिसे और न बहुत सुननेसे ही प्राप्त हो सकता है । यह जिसको स्वीकार कर लेता
है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया
जा सकता है; क्योंकि यह (परमात्मा) उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूपको प्रकट कर देता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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