(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मा उसी साधकको मिलते हैं, जिसको वे स्वयं स्वीकार कर लेते हैं और वे उसीको स्वीकार
करते हैं, जो केवल उनको ही प्राप्त करना चाहता है‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ (गीता ४ । ११) । तात्पर्य है कि परमात्मा साधककी उत्कट अभिलाषासे प्राप्त होते हैं, श्रवणादि साधनोंसे नहीं । शांकरभाष्यमें आया है‒
‘यमेव परमात्मानमेवैष विद्वान्वृणुते
प्राप्तुमिच्छति तेन वरणेनैष परमात्मा लभ्यो नान्येन साधनान्तरेण, नित्यलब्धस्वभावत्वात् ।’
‘जिस परमात्माको यह विद्वान् वरण करता
अर्थात् प्राप्त करनेकी इच्छा करता है, उस वरण करनेके द्वारा ही यह परमात्मा
प्राप्त होनेयोग्य है । नित्यप्राप्तस्वरूप होनेके कारण यह परमात्मा किसी अन्य साधनसे
प्राप्त नहीं हो सकता ।’
गीतामें आया है‒‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्’ (२ । २१) ‘इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता ।’ तात्पर्य है कि जैसे संसारमें सुननेमात्रसे विवाह नहीं
होता, प्रत्युत स्त्री और पुरुष एक-दूसरेको पति-पत्नीरूपसे स्वीकार
करते हैं, तब विवाह होता है, ऐसे ही सुननेमात्रसे परमात्मतत्त्वको कोई भी नहीं जान सकता, प्रत्युत सुननेके बाद जब स्वयं उसको
स्वीकार करेगा अथवा उसमें स्थित होगा, तब स्वयंसे उसको जानेगा । अतः सुननेमात्रसे
मनुष्य ज्ञानकी बातें सीख सकता है, सुना सकता है, लिख सकता है, पर अनुभव नहीं कर सकता ।
‘मैं हूँ’‒इस तरह अपने होनेपन (सत्ता)
का जो अनुभव होता है, यह किसी करणसे नहीं होता । तात्पर्य
है कि अपना होनापन किसी करणके अधीन नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है । अतः जब अपने होनेपनका अनुभव
करनेके लिये भी किसी करणकी आवश्यकता नहीं है तो फिर परमात्मतत्त्व क्या हमारेसे भी
कमजोर है कि उसके अनुभवके लिये करणकी आवश्ययकता हो ?
सत्ता
(तत्त्व) करणरहित है‒इसका सुषुप्तिमें अस्पष्ट अनुभव प्रत्येक मनुष्यको होता है[1] । सुषुप्तिमें
ज्ञानेन्द्रियों कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि
आदि सब अविद्यामें लीन हो जाते हैं, पर स्वयं
रहता है । इसलिये सुषुप्तिसे जगनेपर (उसकी स्मृतिसे) हम कहते हैं कि मैं ऐसा सुखपूर्वक
सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था । इस स्मृतिसे सिद्ध होता है कि सुखका अनुभव करनेवाला
और ‘कुछ पता नहीं था’ यह कहनेवाला
तो था ही ! नहीं तो सुखका अनुभव किसको हुआ और ‘कुछ पता नहीं था’‒यह बात किसने कही ?
[1] सत्ताका स्पष्ट अनुभव करणोंके लीन होनेपर (सुषुप्तिमें) नहीं होता, प्रत्युत करणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर
(जाग्रत्-सुषुप्तिमें) होता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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