।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७१, बुधवार
समयका मूल्य और सदुपयोग

      


(गत ब्लॉगसे आगेका)

अतः मनुष्यको उचित है कि अपना लक्ष्य एक परमात्माको बनाकर सावधानीके साथ तत्परतापूर्वक यथोक्त रीतिसे कर्तव्यकर्म करता रहे । ऐसा करनेपर वह अनायास ही परम ध्येयकी सिद्धि कर सकता है । आवश्यकता है सजग रहनेकी‒सावधानीकी । मनुष्यको हर समय जागरूक होकर इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि मन, इन्द्रियों और शरीर आदिकी चेष्टाएँ कहीं संसारको मूल्यवान् समझकर न होने लग जायँ, अर्थात् संसार लक्ष्य न बन जाय; इस प्रकार हर समय एक लक्ष्यसिद्धिकी जागृति बनी रहनी चाहिये ।

लक्ष्य स्थिर करके चलनेवालेके लिये निम्नलिखित दो बातोंमेंसे किसी एकको भलीभाँति समझ लेने और निरन्तर स्मरण रखनेकी तो बहुत ही आवश्यकता होती है । दोनों रहें तब तो कहना ही क्या है । एक तो यह कि हमें पहुँचना कहाँ है और दूसरी यह कि उसका मार्ग कौन-सा है । जैसे हमें किसी पहाड़पर एक देवमन्दिरमें जाना है तो पहले उसका दिग्दर्शन हो जाय कि कहाँ जाना है तो फिर हम उस दिशाकी ओर दृष्टि करके चलते रहें । अथवा मन्दिर न दीखनेपर भी हमें केवल रास्ता मिल जाय कि इस रास्तेसे इस प्रकार पहाड़पर स्थित देवमन्दिरमें पहुँचा जा सकता है तो हम केवल रास्तेके आधारपर ही चल सकते हैं ।

पहले लक्ष्यके स्वरूपको समझना चाहिये कि परमात्माकी प्राप्ति क्या है । भगवान्‌ने गीतामें बतलाया है‒

यं लब्ध्वा चापरं लाभं   मन्यते  नाधिकं  ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                                            (६ । २२)

अर्थात् उसकी प्राप्ति होनेपर उससे बढ़कर अन्य कोई लाभ होता है, ऐसी मान्यता उसके मनमें रह ही नहीं सकती और उसमें स्थित हो जानेपर बड़ा भारी दुःख भी उसे कभी विचलित कर नहीं सकता, यानी कैसा भी कष्ट क्यों न प्राप्त हो, हमारे परम आनन्दमें कभी कमी आ ही नहीं सकती, तो फिर दुःख तो वहाँ रह ही कैसे सकता है ? दुःखका तो वहाँ आरम्भ ही नहीं हो सकता; क्योंकि सुखमें कमी आनेसे ही दुःखके आनेकी गुंजाइश रहती है और सुखकी कभी, किंचित् भी कमी वहाँ रहती नहीं । उस स्थितिमें हर समय एकरस समता बनी रहती है; राग-द्वेष, हर्ष-शोक, चिन्ता-भय-उद्वेग आदि भाव अन्तःकरणमें कभी हो ही नहीं सकते । कर्म, क्लेश, विकार, अज्ञान, संशय, भ्रम आदि दुःख और दुःखोंके कारणोंका सदाके लिये विनाश हो जाता है । यह है वस्तुस्थिति; यही प्राप्तव्य है और यही गन्तव्य लक्ष्य है ।

दूसरा है मार्ग । मार्ग क्या है ? हम कोई भी काम करें, वह होना चाहिये शास्त्रविहित और हमारे लिये विशेषरूपसे निर्धारित किया हुआ । उस कामको राग-द्वेषरहित होकर भगवदाज्ञा मानकर केवल भगवत्प्रीत्यर्थ भगवच्चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे तत्परतापूर्वक करते रहें । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे